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संस्कृति की सीमा
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उस मोर छोटे-मोटे व्यक्ति का पाना मुश्किल हो जाता का प्रतीक.समझा जाता है; क्योंकि दुनिया का ज्ञानहै, उसका ध्यान तो रहा दूर । परम्पराये जिस प्रकार विज्ञान, पराक्रम, वैभव इसी से सम्बन्धित हैं जो स्वयं चलती हैं उसी प्रकार धाराये भी चलती है। चलन क्रिया दूसरे लोगों को पथ-प्रदर्शन एवं संकेत से सही धारा को यद्यपि दोनों में मौजूद-व्याप्त है, पर वैसी नहीं जैसी प्राप्त कराते है; वह मनुष्य को मनुष्यत्व सिखलाती है, न चाहिए । नदियों की धारा रुक सकती है, रोकी जा सकती कि समूचे अधिकार को प्रदान कर स्वीकार कराती है; है; पर सयमरूपी धारा का प्रवाह चलता रहता है यदि वह चाहती है ऊँच-नीच वीर-धीर, योगी-सन्त, साधारणकिसी ने पकड लिया तो निश्चय ही संस्कृति एव संस्कृत प्रसाधारण प्रादि । और :की अनुभूति हो सकती है वरना कूप-मण्डूक की तरह बने (२) सन्त संस्कृति :-जिसे योगी संस्कृति भी कह रहेगे। उसी प्रकार क्रियाये उत्पन्न हो जाती है वे ससार सकते है। ज्ञान की उत्कृष्ट दिशा, श्रद्धा, विश्वास और को बिन्दु की तरह मानकर चलने लगती है, पर उसकी समन्वय को फैलाना इसका जन्मसिद्ध अधिकार है। यह गहराई मे उतरने की कोशिश किसी ने नही की, उन्हे मानव को स्वार्थ-भावना, ऊंच-नीच और बाह्य माडम्बर से मालूम कहाँ है कि विन्दु मे भी सिन्धु है, उसकी अपार बिलकुल विरक्त होने को कहती है। सीमा है उसे मापा जाना हँसी खेल नही है । जिसे मालूम संस्कृति की विभिन्न दिशायें होने के बावजूद भी भी तो वह मापने की कोशिश नहीं करता है। जानते अलग-अलग दिशाओं में नहीं बहती, यह एक-दूसरे की हुए भी उसी मार्ग पर गमन करता है जहां दलदल है। सीमा में किसी न किसी रूप में अवश्य मौजद रहती हैं। ___सामाजिकता संस्कृति का प्राधार है : वह उससे फिर भी इसकी सीमा इतनी विशाल एवं विस्तीर्ण है कि अछुती नही है, न उससे अलग है उसका सम्बन्ध कडी की उसे शीघ्रता से परखना मुश्किल हो जाता है। यह सब तरह जुडा हुआ है। इसके शिथिल होने पर सस्कार टूट- कमी मेरी मापकी है। विखर एव छूट जाते है। छिन्न-भिन्न की क्रिया होने से एक योगी को अपनी साधना का प्रदर्शन जीवन की समाज मे स्थिरता, राग-वेष जैसी भावनाये उत्पन्न हो सही अनुभूति सुख-दुख को जानने के बाद होती है । योगजाती है जिससे समाज सस्कृति से अलग हो जाता है, तम साधना तब तक करता रहता है जब तक यम-नियम समाज मे प्रोगुण उत्पन्न हो जाते है; पर सामाजिकता का प्रतिक्रमण. संचरण एवं प्रवाह मौजूद रहता है। वैसे उसी प्रकार ज्यो की त्यों बनी रहती है, व्यक्ति समाप्त तो निरक्षर सत्-असत् का अविचारक भी उस पर विचहो जाता; व्यक्तित्व नही । संस्कृति का लोप याने समाज रण करता है, मागे की ओर बढ़ता है। पर इसका बढ़ना की सामाजिकता, मनुष्य की मनुष्यता एवं राष्ट्र की मात्र कहा जायेगा और दूसरे का उसकी अनुभूति से कठोराष्ट्रीयता का भी। दोनों का रहना ही प्राधार की कोटि रतम साधना की मौजूदी द्वारा विकास की ओर जाना। में पा सकता है। संस्कृति की परम्परा कई शताब्दी से रहे तो एक ही, पर दोनों मे पृथकता है। सिर्फ यही ही चली पा रही है, यह समाज की क्रियाओं पर ही। नहीं है; अपितु एक जीवन को बाह्य क्रियानों से हराकर
परम्परागत कुछ अनुभव होते है जो व्यक्ति के उच्चतम विकास की मोर ले जाती है और समय-समय व्यक्तित्व को सचेष्ट करते हैं। पथ सूना नही है उसे पर सच्चा पथ-प्रदर्शन भी करती है। पौर दूसरी इससे बनाया जाता है, व्यक्तित्व गलत नही, गलत है व्यक्ति भिन्न क्रियामों को प्रदर्शित करती है। उसका माचरण आदि । हम सूक्ष्म दृष्टि डालकर देखें तो व्यापक अर्थ में संस्कृति को दो भागों में विभक्त किया जरूर ही इस निष्कर्ष पर पहुँचेंगे।
जा सकता है भौतिक और आध्यात्मिक । भौतिक संस्कृति संस्कृति को दो भागों में विभक्त कर सकते हैं :- में रहन-सहन एवं यन्त्र मादि कलायें पाती है और माध्या(१) भद्र संस्कृति और (२) सन्त संस्कृति ।
त्मिक संस्कृति में प्राचार-विचार और विज्ञान का समा(१) भद्र संस्कृतिः-इसका रूप ऐश्वर्यता और विभूति वेश रहता है जो सहज और सरल नहीं है।