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अनेकान्त
इसी गुणस्थान की उपासना पद्धति में प्रा जाती है। यहाँ श्रावक अवस्था में (पांचवें गुणस्थान में) नर्क तिर्यच तथा तत्त्वनिष्ठा के साथ संयम और सम्यक्रिया का योग भी मनुष्य का प्रायुष्य नहीं बंधता, न नपुंसक तथा स्त्री वेद हो जाता है । श्रावक के बारह व्रतों में से पाठ व्रत तो का बंधन नहीं होता । एक मात्र वैमानिक देव और पुरुष यावज्जीवन के लिए किया जाता है। और चार व्रत वेद का बंध पड़ता है। इस प्रकार अध्यात्म व व्यवहार अल्पकालिक हैं। ग्यारह" प्रतिमा का कालमान पांच दोनों में श्रावक की भूमिका महत्वपूर्ण है। वर्ष छ: महीने का व्रत है, वैसे पहली प्रतिमा एक मास प्रमत्त संयति गणस्थानकी दूसरी प्रतिमा दो मास की इसी प्रकार तीसरी, चौथी प्रत्याख्यानी कोष मान माया और लोभ का क्षयोपमादि सभी प्रतिमाओं में एक-एक मास की वृद्धि हो जाती शम होने से प्रात्मा संयम की ओर विशेष प्रयत्नशील होती है। ग्यारह प्रतिमा एक साथ तो करते ही हैं। किन्तु है। सावध योगों का सर्वथा त्याग करके संयमी बन जाती कोई ग्यारहवीं पडिमा (प्रतिमा) न कर सके तो पीछे है। किन्तु अन्तर प्रदेशों में प्रमाद फिर भी बना रहता की पांचवी छठी या सातवीं तक भी कर सकता है। एक है। प्रमत्त युक्त संयमावस्था का नाम ही व छठा गुणही प्रतिमा कई बार भी कर कर सकता है। प्रागमोत्तर स्थान है। इस गणस्थान में पाने के बाद साधक पारिसाहित्य में माता है कार्तिक सेठ पांचवी प्रतिमा तक सौ
वारिक परिस्थितियों के ऊपर उठ जाता है। व्यवसायिक वार की थी। मानन्द श्रावक आदि दसों श्रावकों ने अपने
प्रक्रिया उसके लिए त्याज्य होती है। वह जीवन भर अनुजीवन के अंतिम समय में प्रतिमा ग्रहण की थी, और
दृष्टि भिक्षा जीवी बन जाता है। शारीरिक प्रावश्यकताओं प्रतिमा समाप्ति के बाद अंतिम संलेखना की थी। पांचवे
की पूर्ति साधक भिक्षा वृत्ति से ही प्राप्त करता है । सब गुणस्थान की जघन्य स्थिति अन्तर मुहूर्त और उत्कृष्ट स्थिति कुछ कम एक कोटि पूर्व की है । नौ साल की उम्र
__ नामों से ऊपर उठकर की जाने वाली साधना का प्रारम्भ में श्रावक व्रत किसी ने ले लिए और करोड़ पूर्व का
छठे गुणस्थान में ही होता है। मायुष्य हो तब यह उत्कुष्ट स्थिति होती है।
संयम
पापकारी प्रवृत्तियों से उपरम (विरती) होने का मात्मा पांचवें गुणस्थान तक पहुँच कर प्रांशिक संयम नाम ही संयम है। चारित्र ग्रहण के संयम में सामायक की साधना का लाभ प्राप्त कर लेती है। प्रत्याख्यानी पाठ के द्वारा सावद्य" योगों का त्याग किया जाता है। कषाय चतुष्क के उदय से संयमी नहीं बन सकती, फिर संयम चर्या में रहता हा साधक वावन" अनाचारों का भी संयमा संयमी तो हो ही जाती है।
वर्जन करता है। बाईस परीषहों को समता के साथ सहन श्रद्धा विवेक और क्रिया युक्त जीवन निश्चित ही करता है। उन्नति कारक होता है। इस गुणस्थान मे आने वाले
पाहार प्रादि की एषणा (अन्वेषण) में वयांलीस मनुष्य और तिर्यच निकट भविष्य मे ही मोक्षगामी होते दोषों का परिहार करना होता है । मंडल पांच दोषो का हैं। वैसे भव तो श्रावक के काफी है, मानन्दप्रादि दसों परित्याग कर के भोजन करता है। श्रावक एका भवतारी हुए थे। पावश्यकता सजकता के प्राजीवन अहिंसा प्रादि पांच महाव्रतों का सम्यक् साथ मागे बढ़ने की है, फिर एका भवतारी होते देर नहीं पालन करना ही साधना का मौलिक रुप है। पांच समति लगती । सचमुच श्रावक अवस्था साधुत्व की पूर्व भूमिका
२१. सव्वं सावज्ज जोगं पच्चक्खामि । है। प्रभ्यास और क्षयोपशम का योग पाकर श्रावक कभी
२२. दशवकालिक प्र० ३ न कभी साधुत्व को ग्रहण कर ही लेता है । इसके अलावा
२३. उत्तराध्ययन न प्र०२ १६. दसाश्रुतस्कंध ।
२५. उत्तराध्यय अं० ७२१ २०. उपासक दसांग,
२६. आवश्यक उत्तराध्यन ।