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अनेकान्त
हुए उन्होंने लिखा है-"भगवान महावीर के प्रथम पट्ट- तब फिर दोनों का संभोग एक हो गया। यह संभोग और धर सुधर्मा थे। उनके उत्तरवर्ती क्रमशः जम्बू, प्रभव, विसंभोग की व्यवस्था का पहला निमित्त है । प्रार्य महाशय्य भव, यशोभद्र, सभूत और स्थूलभद्र-ये प्राचार्य हुए गिरि ने पाने वाले युग का चिन्तन कर सभोग और विसं. हैं । इनके शासनकाल में एक ही सभोग रहा है।" भोग की व्यवस्था को स्थायी रूप प्रदान कर दिया। स्थूलभद्र के दो प्रधान शिष्य थे, प्रार्य महागिरि
दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप-- इनसे सम्बन्धित और प्रार्य सुहस्ती। इनमें प्रार्य महागिरि ज्येष्ठ थे और .
सभोग और असभोग का विकास कब हुआ, इसका उल्लेख प्रार्य सुहस्ती कनिष्ठ । आर्य महागिरि गच्छ-प्रतिबद्ध-जिन ।
प्राप्त नही है। आर्य महागिरि ने सभुक्त-सभोग की कल्प-प्रतिमा वहन कर रहे थे और आर्य सुहस्ती गण का
व्यवस्था के साथ ही इनकी व्यवस्था की या इनका विकास नेतृत्व सभाल रहे थे। सम्राट् संप्रति ने कार्य सुहस्ती के
उनके उत्तरवर्ती काल मे हुआ यह निश्चयपूर्वक नही कहा लिए आहार, वस्त्र मादि की व्यवस्था कर दी। सम्राट
___ जा सकता। नियुक्तिकाल में सभोग के ये विभाग स्थिर ने जनता में यह प्रस्तावित कर दिया कि आर्य सुहस्ती ने
हो चुके थे, यह नियुक्ति की गाथा (२०६६) से स्पष्ट है । शिष्यों को प्राहार वस्त्र, आदि दिया जाय और जो व्यक्ति
स्थानाग सूत्र के निर्देशानुसार पाँच कारणो से साभोउनका मूल्य चाहे, वह राज्य से प्राप्त करे । प्रार्य सुहस्ती
गिक को विसाभोगिक किया जा सकता है। यदि संभोग ने इस प्रकार का आहार लेते हए अपने शिष्यो को नहीं
की व्यवस्था प्रार्य महागिरि से मानी जाए तो यह स्वीकार रोका । आर्य महागिरि को जब यह विदित हुआ तब
विहित नया तब करना होगा कि स्थानाग का प्रस्तुत सूत्र पार्य महागिरि उन्होंने पार्य सुहस्ती से कहा-प्रार्य ! तुम इस राजपिंड के पश्चात् हुई पागम-वाचना में संदृब्ध है। इसी प्रकार का सेवन कैसे कर रहे हो? आर्य सहस्ती ने उसके उत्तर समवायाग का प्रस्तुत सूत्र भी (१२-१) ग्रार्य महागिरि में कहा-यह राजपिण्ड नहीं है । इस चर्चा में दोनों युग- के उत्तरकाल में सदृब्ध है। निशीथ भाप्यकार ने सभोग पुरुषों में कुछ तनाव उत्पन्न हो गया। प्रार्य महागिरि ने विधि के छ: प्रकार बतलाए है-प्रोप, अभिग्रह, दानकहा-"आज से तुम्हारा और मेरा संभोग नही होगा- ग्रहण, अनुपालना, उपपात और सवास'। इनमे से प्रोध परस्पर भोजन प्रादि का सम्बन्ध नहीं रहेगा। इसलिए सभोग-विधि के बारह प्रकार बतलाए गए है । समवायांग तुम मेरे लिए असांभोगिक हो।" इस घटना के घटित के प्रस्तुत दो श्लोको मे उन्ही बारह प्रकारो का निर्देश होने पर प्रार्य सुहस्ती ने अपने प्रमाद को स्वीकार किया, है। निशीथ भाष्य में भी ये दो श्लोक लगभग उसी रूप १. निशीथ चूणि ( निशीथ सूत्र, द्वितीय विभाग),
में मिलते है-- पृ० ३६०।
१. निशीथ चणि ( निशीथ सूत्र, द्वितीय भाग ), सीसौ पुच्छति-कति पुरिसजुगे एक्को सभोगो ततो अज्जमहागिरि अज्जसुहस्थि भणति-अज्जप्पपासीत् ? कम्मि वा पुरिसे असभोगो पयट्टो ? केण
भिति तुम मम असंभौतियो । एव पाहुड-कलह वा कारणेण?
इत्यर्थः । ततो अज्जसुहत्थी पञ्चाउट्टो मिच्छादुक्कड ततो भणति-संपतिरण्णुप्पत्ती सिरिधर उज्जाणि करेति, ण पूणो गेण्हामो। एवं भणिए सभुत्तो। एत्थ हे? बोधव्वा।
पूरिसे विसंभोगो उप्पण्णो। कारण च भणियं । ततो अज्जमहागिरि इत्थिप्पमिती जाणह विसंभोगो ॥ अज्जमहागिरी उव उत्तो. पाएण मायाबहुलाभण्यत्ति
२१५४॥ काउविसंभोगं ठवेति । वद्धमाणसामिस्स सीसो सोहम्मो। तस्स जंबुणामा । २. स्थानांग ५.४००। तस्स वि पभवो। तस्स सेज्जभवो । तस्स वि सीसो ३. निशीथ भाष्य, गाथा २०७० । जस्सभद्दो। जस्सभद्दसीसो संभूतो। संभूयस्स थूल- श्रोह अभिग्गह दाणग्गहणे अणुपालणा य उववातो । भद्दो । थूलभद्दजाव सम्वेसि एक्कसभोगो पासी। संवासम्मि य छट्टो, संभोगविधी मुणेयव्वो।।