________________
१३२
इस मत की पुष्टि के लिए कई सबल प्रमाण उपलम्प हैं। (१) राष्ट्रकूट राजा भुवनिरुपम के धाक्रमण के बाद धर्मपाल ने वत्सराज द्वारा जीते हुए कन्नौज शीघ्र के भासपास के प्रदेश को हस्तगत कर इन्द्रायुध के स्थान पर चक्रायुद्ध को वहाँ का अधिकारी बनाया। उस समय वहाँ एक बड़ा दरबार किया जिसमें कई प्रदेशों के शासक विद्यमान थे इनमें प्रवन्ति का शासक भी था जो वत्सराज से भिन्न था।'A
(२) ग्वालियर के राजा भोज के शिलालेख में वत्सराज के पुत्र नागभट्ट द्वितीय के वर्णन में उसे मानतं मालव यादि प्रदेशों को जीतने वाला दणित किया है। इससे स्पष्ट है कि श्रवन्ति मालव प्रदेश उस समय तक प्रतिहार साम्राज्य का भू भाग नहीं बना था ।
प्रनेकान्त
(३) कुवलयमाला की शकसं० ६१९ (७७८ ई० ) की प्रशस्ति में लिखा है कि भ्रष्टापद जैसे ऊंचे जालोर दुर्ग मे एक ऊंचे धवल मनोहर रत्नों से युक्त भगवान ऋषभदेव का मन्दिर है वह कई ध्वजाओं से युक्त है । इस मन्दिर में यदि ३० के दिन उक्त ग्रंथ सम्पूर्ण किया। उस समय शत्रुओं के सैनिकों का मान भंग करने वाला और स्नेही वर्ग रूपी रोहणी पति सम्पूर्ण कलावान् चन्द्रमा के सदृश वत्सराज शासक था । यद्यपि इस प्रथ प्रशस्ति से राज्य की सीमाओंों का पता नही चलता है किन्तु पुरातन प्रबन्ध संग्रह के प्रसंग से प्रतीत होता है कि उस समय तक इन प्रतिहार राजाओं की राजधानी
34. ए लिस्ट ग्राफ दी इन्स् ग्राफ नोर्दन इंडिया Page 223-224
४. प्रामालय किरात तुरुष्क वस मत्स्यादि राजगिरिदुर्गादृचापहारैः ।
Epigraphia India Vol. XVIII पृ. ११२ ५. तुगमल जिग भवण मणहर सावयाउन विसम जाबालि उरं अट्ठावय व ग्रह प्रत्थि पुहईए । तुम धवल मगहारि-रयण- पसरत धयवडाडोय । उसभ- जिणंदायण करावियं वीरभद्देण । सिरि बच्छराय-गामो रणहत्थी परिषद जइया ॥ कुवलयमाला पृ. २८२-८३
जालोर ही थी ।
(४) कुवलय माला मे प्रारम्भ में एक प्रसंग वर्णित है। यद्यपि यह कथा प्रसंग है किन्तु इससे यह कहा जा । सकता है कि उस समय प्रवन्ति प्रदेश के लिए संघर्ष चल रहा था। इसकी काल्पनिक कथा मे राजा दृढवर्मा घोर उसकी रानी प्रियंगुश्यामा का उल्लेख है। इसके दरबार मे इसके सेनापति का पुत्र सुषेण ने जो शबर जाति का था अपने मालवा विजय का प्रसंग उल्लेखित करते हुए कहा "मैं आपकी ग्राशानुसार मालवे पर धाक्रमण करने गया। मेरे पास विशाल सेना विद्यमान थी। इस सेना के पराक्रम से दुश्मन की हार हुई और उसकी सेना भाग खडी हुई। इसके पश्चात् उसकी सेना ने नगर में प्रवेश करके उत्तम वस्तुओं को लूटा ।" कथा सूत्र में वस्तुतः इस प्रसंग का कोई महत्व नहीं है। किन्तु राजनैतिक घटनाओं में कहा जा सकता है कि वत्सराज का सघर्ष मालवे के लिए चल रहा हो। इस प्रकार अवन्ति का राजा वत्सराज से भिन्न था।
इन सब प्रसंगों से स्पष्ट है कि प्रतिहारों की इस शाखा की राजधानी प्रवन्ति नही थी। कई विद्वान इन प्रतिहार राजाओं को, अवन्ति के प्रतिहार कहते है किन्तु इसका कोई ऐतिहासिक आधार नही है । हरिवंश पुराण की प्रशस्ति का श्रतएव यही अर्थ लेना चाहिए कि " वत्सराज एवं प्रवन्ति का शासक" अर्थात् वत्सराज से अवन्ति का शासक भिन्न था।
६. पुच्छिम्रो राइणा "मालव र्णारिदेणसह तुम्हाणं को बुततो' ति भणिय सुसेणेण" जय देवो । इम्रो देव समासेणं तेहि चेम दिवसे दरिव महा करि तुरह-रह णर-सय- सहस्सुच्छलत कलयला राव-सघट्टघुट्टमाण णहल गुरुभर-दलत-महियल जणसय-संवाहरुममाण दिसायह उदड पोडरीय संकुल संपतं देवस्स सतियं बलं । जुज्झ च समादत्तं ताव व देव भ्रम्ह बलेणं विवदेत छतवं नियंत-विषयं पयंत रडंत जो खलंत प्रासयं फुरंत कोंतयं सरत- सरवरं कुजर दलंत-रह-वरं भग्गं रिउ बलंति....” ( उपरोक्त पृष्ठ १० मोर ३० )