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अनेकान्त
से भी कम है। इसीलिए यहाँ ज्ञान का उपयोग लिया है, होता है। यहाँ इन दोनों का प्रभाव है, यहां कर्म प्रकृतियों दर्शन का उपयोग होने से पहले ग्यारहवे में या नवे गुण- का या तो उदय है, या फिर क्षायक ही होता है। चार स्थान मे साधक पा जाता है। यहाँ की चारित्रावस्था अघातिक कर्म की उदयावस्था है, और चार धातिक की भी पिछले गुणस्थान से भिन्न है। नौवें गुणस्थान तक क्षयावस्था है जो प्रात्मा अणु से पूर्ण विकास की भावना सामायिक तथा छेदोपस्थापनीय चारित्र रहता है । दशवे लिए पहले गणस्थान से ऊर्ध्वगमन प्रारम्भ करती है, वह गुणस्थान में सूक्ष्म साम्पराय चारित्र है । साधक यहाँ प्रा यहाँ प्राकर पूर्णता की स्वानुभूति करने लग जाती है। कर विशद्धि के एक महत्वपूर्ण मोड तक पहुँच जाता है। यहाँ ज्ञान पूर्ण है, दर्शन पूर्ण है, सम्यक्त्व पूर्ण है, अंतइससे आगे की स्थिति सर्वथा मोहाभाव की है।
राय मुक्ततापूर्ण है, अर्थात् चौदहवें गुणस्थान में और ___ग्यारहवें में उपशान्त मोह गुणस्थान में मोह को सिद्धावस्था में भी गण ऐसे ही रहेगे । सर्वथा उपशान्त दशा रहती है। मोहनीय कर्म की किसी अपूर्णताभी प्रकृति का विपाकोदय या प्रदेशोदय यहाँ नही रहता। यह गुणस्थान कुछ बातों में पूर्ण होने पर कुछ अपूर्ण अन्तर महतं के लिए प्रात्मा की वीतराग अवस्था हो भी है । तभी गुणस्थान है, बग्ना सिद्ध हो जाते है चार जाती है। उपशम श्रेणी का यह अन्तिम स्थान है। यहाँ अधातिक कर्मो से सबधित प्रात्मगुण तेरहवे गुणस्थान मे से वापिस मुड़ना ही पड़ता है । कई बार तो यहाँ प्रायुष्य नहीं होते। वेदनीय कर्म के कारण अनन्त आत्मिक सुख पूर्ण हो जाता है। तो साधक को ग्यारहवें से सीधा चौथे की अनुभूति इस गुणस्थान मे नही होती, आयुष्य कर्म के में माना पडता है । ग्यारहवे में आयुष्य पूरा करने वाला कारण सर्वथा, आत्मिक स्थैर्य का अनुभव नहीं होता। जीव देव लोक मे सर्वोच्च देवालय को पाता है। वहा नाम कर्म के कारण अगा लघुत्व नही पा सकते । ये गण गुणस्थान 'चौथा है । कई साधक' अन्तर महतं के बाद पुनः अकर्मा अवस्था में ही होते है । इस गुणस्थान मे ये चार मोहोदय के कारण दसवे, पाठवें, सातवे गणस्थान में
र कर्म विद्यमान है।
१ उतर पाते हैं। उपशम श्रेणी में ऐसा होना अनिवार्य है। मुनि और तीर्थकर
बारहवें क्षीण मोह गुणस्थान में प्रात्मा को मोह की तेरहवं गुणस्थान में प्रात्म विकास दृष्टि से सब साधक सत्ता से भी छुटकारा मिल जाता है । क्षपक श्रेणीरूढ समान है। सबको ज्ञान दर्शन, चारित्र, आत्मवल, आदि मुनि यहाँ पाकर मोह का सर्वथा क्षय कर देता है। गुण सदृश है, किन्तु विद्यमान चार कर्मो के शुभाशुभ उदय अनादि काल से प्रात्मा के साथ चला आ रहा मोह यहाँ के कारण कुछ भेद रहता है। मुख्यत: इनमे दो विकल्प पाकर छुटता है। अन्तर मुहूर्त की स्थिति वाले इस गुण- है मुनि और तीर्थकर मुनि अवस्था साधक की सामान्य स्थान में सात कर्म शेष रहते है। किन्तु मोह की सत्ता अवस्था है। तीर्थकर अवस्था नाम और गौत्र कर्म की छट जाने पर शेष घातिक त्रिक भी अतिम स्थिति मे पहुँच विशिष्ट परिणति से प्राप्त होती है। किसी-किसी साधक जाते है। बारहवे गुणस्थानमे पहुँच कर पहली बार क्षायकि की विशिष्ट साधना से कभी-कभी नाम कर्म की विशेष चारित्र को प्राप्त करता है। यह छद्मस्थ अवस्था की उत्तर प्रकृति तीर्थकर नाम कर्म का बघ हो जाता है । अन्तिम भूमिका है। इस गुणस्थान से साधक न तो वापिस उसके साथ अन्य शुभ प्रकृतियो का भी बघ हो जाता है। गिरता है, और न प्रायुष्य पूरा करता है। यहाँ से तो आगे उच्च गोत्र का भी प्रबल बंध पड जाता है। उन प्रकृतियों संपूर्ण विकास की अोर गति करने का अवसर प्राप्त है। के उदय से व्यक्ति तीर्थकर पद प्राप्त करता है। तीर्थकर तेरहवां सयोगी केवली गणस्थान
मे शारीरिक विशेषताओं के साथ कुछ अतिशय और भी तेरहवां सयोगी केवली गुणस्थान घातिक त्रिक ज्ञाना।
हुआ करता है, जिससे साधारण जनता को भी पौरो से वरणीय दर्शनावरणीय प्रतराय के क्षय होने पर प्राप्त विशेष होने का पता लगता रहता है । होता है। यह प्रात्मा की सर्वज्ञावस्था है। उपशम ग्या- इर्यापथिक क्रियारहवें गुणस्थान तक है। क्षयोपशम बारहवे गुणस्थान तक तेरहवें गणस्थान में अवस्थित साधक से जो कुछ भी
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