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अनेकान्त
जानकारी करने वाले को व्यवहार में सम्यक्त्वी कहा जाने के बाद ही अनिवृत्ति करण पा जाता है, जो विशुद्ध जाता है, व्यवहार शब्द का प्रयोग यहाँ इसलिए किया है, सम्यक्त्वावस्था है । ग्रंथी भेदन के साथ मिथ्यात्व मोहनीय कि देव गुरु और धर्म को अलग-अलग समझ लेना या प्रादि सात प्रकृतियों का यदि क्षय हो जाता है तो क्षायक जीव-प्रजीव प्रादि नौ तत्वो की जानकारी कर लेना ही सम्यक्त्व क्षयोपशम होता है तो क्षायोपशमिक सम्यक्त्व सम्यक्त्व हो तो मरुदेवा जी को सम्यक्त्व प्राप्ति केसे हुई उपशम होने से प्रौपशमिक सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है। होगी? उन्होंने जीव-अजीव के बारे है या गुरु देव के तीनों कारणों को समझने के लिए प्राचार्यों ने पीपीलिका बारे में कभी कुछ सुना ही नही था, इधर मिथ्यात्वी भी।
का उदाहरण दिया है-जैसे पीपीलिका २ निलक्ष्य घूमती नो पूर्वो का ज्ञान कर लेता है। फिर भी वह सम्यक्त्वी किसी स्तंभविशेष को पाती है, फिर प्रयत्न करके ऊपर नहीं बनता । अतः सम्यक्त्व प्राप्ति के उपादान करण. कुछ चढती है, और पखों से प्राकाश की ओर उड जाती है। भोर होने चाहिए। प्रमुक सीमा तक जानकारी करना तो उसी प्रकार स्तभविशेष पाने को यथा प्रवृत्ति करण ऊपर सम्यक्त्व की व्यावहारिक कसौटी ही बन सकती है। चढने की क्रिया विशेष को अपूर्वकरण और ऊपर उड़ने सम्यक्त्व का नैश्चयिक रूप
की क्रिया अनिवृत्ति करण कहते है। सम्यक्त्व की नैश्चयिक व्याख्या हुए शास्त्रकारो ने प्रविरतिकहा--प्रनतानुबन्धी क्रोध मान, माया, लोभ मिथ्यात्व ग्रथी भेदन के साथ सम्यक्त्व की प्राप्ति हो जाती है। मोहनीय मिश्र मोहनीय; सम्यक्त्व मोहनीय, इन सात किन्तु संवर की उपलब्धि नहीं होती। जब तक अप्रत्याप्रकृतियों का उपशम, क्षयोपशम या क्षायक होने से प्रात्मा ख्यानी क्रोध मान, माया, लोभ का उदय रहता है, तब की जो अवस्था होती है, उस अवस्था" को सम्यक्त्व तक सम्यक, श्रद्धा होने पर भी सवर का लाभ नही मिल अवस्था कही जाती है। उस अवस्था मे अगर कुछ सकता। जिस प्रकार किसी कारणवश कारावास भुगतने तात्त्विक जानकारी भी करता है तो वह सम्यक् होगी, वाला धनाढ्य सेठ अपने धन का अपने लिए कोई उपयोग यथार्थ होगी। इन सात प्रकृतियो के उपशम, क्षयोपशम नहीं कर सकता, अपना कमाया हुआ धन अपना होते हुए प्राक्षायक होने से पहले प्रत्येक प्रात्मा को ग्रथीभेद करना भी अपने काम नही पाता यह कारावास की करतूत है। पडता है। बिना ग्रंथी भेद किए कोई प्रात्मा सम्यक्त्व इसी प्रकार अप्रत्याख्यानी कषाय के कटघरे मे रहता हुआ पा नहीं सकती। ग्रंथी भेद के साथ ही इन प्रकृतियो का सम्यक दर्शन वाला व्यक्ति भी सवर के लाभ से लाभान्वित उपशम प्रादि होता है।
नही हो सकता। अतः इस गुणस्थान को अवरति सम्यक् अंची भेव का क्रम
दृष्टि गुणस्थान कहते है। इस गुणस्थान मे सम्यक् दृष्टि प्रायष्य छोड़कर शेष सात कमों की स्थिति कुछ न्यून देवता, कछ नारक जीवन, कछ मनुष्य मोर तियच भी
कोटा कोटी सागर की स्वाभाविक रूप मे हो जाती ऐसे होते है जो केवल सम्यक्त्वी ही है। है. उसे यथा प्रवृत्ति करण कहते हैं। यह स्थिति क्रिया सम्यक्त्व के भेदविशेष से नहीं पाती, स्वभावतः पाती है, एक बार नहीं सम्यक्त्व के विकल्प दो प्रकार से किये जाते हैं, १. भनेकों बार इस स्थिति को व्यक्ति पा लेता है। किन्तु कर्म निर्जरा की अपेक्षा से, २. प्राप्ति के लक्षणो से । कर्म अपर्व करण के प्रभाव में वह भागे नहीं बढ़ सकता । यथा निर्जरा की अपेक्षा से सम्यक्त्व के पांच" विकल्प होते है, प्रवृत्ति करण में प्राकर प्रात्मा विशेष प्रयत्न करता है प्रनतानुवधी कषाय चतुष्क के उपशम से होने वाला तभी ग्रन्थी भेदन होता है। अपूर्व करण से ग्रंथी भेद हो -
१२. गुणस्थान क्रमारोह । ११. सेय सम्मत्ते पसत्थसंमत्त मोहनीय कम्मांणु वेयणो व १३. उपसामग सासायण, खग्रोवसमियं चवेदगं खइयं । समक्खय समुत्वोपसम संवेगाइलिगे सुहे मायपरिणामे । सम्मत्तं पंच विहं, जह लग्भइ तं तहा वोच्छं। प्र०४
१४ मभि.