________________
१०६
ले धाये। सभी के साथ वरांग का पाणिग्रहण सम्पन्न हो गया। इस सर्ग का नाम वरांग पाणिग्रहण रखा गया है। तृतीय सर्ग - सभागार में एक दिन धर्मसेन के पास वनपाल आया और उसने वरदत्त मुनि के श्रागमन का शुभ सन्देश दिया । धर्मसेन सपरिकर उनकी वन्दना करने गये । उत्तर में वरदत्त ने धर्मोपदेश दिया । वरांग पर उस धर्मोपदेश का अत्यन्त गहरा प्रभाव पड़ा। यहाँ बारह व्रतों का सुन्दर वर्णन है। इस सर्ग का नाम धर्मोपदेश है।
1
चतुर्थ सर्ग - मन्त्रियों द्वारा बरांग के गुणों का वर्णन । घमंसेन ने वरांग को राज्याभिषिक्त किया। इस अवसर पर गुणदेवी को प्रसन्नता होना स्वाभाविक ही था । परंतु बरांग की सौतेली माता मृगसेना को ईर्ष्या भाव जागृत हो गया। उसने अपने पुत्र सुवेण को उकसाया। सुषेण बरांग से युद्ध करने को तैयार हो गया, परन्तु वरांग के पक्ष में जनमत होने के कारण यह उसे अनुकूल प्रतीत नहीं हुआ। अतः उसने भेदक नीति का अवलम्बन लिया और अपनी कार्य सिद्धि के लिए सुबुद्धि नामक मन्त्री को अपनी चोर करने में सफल हो गया। इधर वरांग ने कौशल देश में कुशलतापूर्वक राज्य करना प्रारम्भ कर दिया। भृगुसीपुराधिपति ने बरांग को दो सुन्दर षोड़े भेंट किये। मन्त्री सुबुद्धि ने उन्हें शिक्षित करने का उत्तरदायित्व अपने कन्धों पर ले लिया, सुषेण को राज्यासीन कराने के उद्देश्य से उसने एक घोड़े को अच्छी शिक्षा दी घोर दूसरे को बुरी। इस सगं का नाम 'राज्यलाभ' है । पंचम सर्ग - दोनों घोड़ों की परीक्षा ली गई मन्त्री सुबुद्धि ने दो सवारों को उन पर बैठाकर नृत्य वगैरह बरांग के समक्ष प्रस्तुत किया और स्वयं ने परीक्षा करने के लिए उनको प्रेरित किया। वरांग जैसे ही दूसरे (कुशि क्षित) भाव पर बैठा, वह राजा को लेकर वन की घोर तेज दौड़ा। इसी बीच दोनों एक प्रन्ध कूप में जाकर गिर पड़े। प्रश्व तत्काल ही काल-कलवित हो गया पर
रांग पूर्व कर्म के प्रभाव से बच गया । इस घटना से उसे संसार से विरक्ति हो गई। प्राभूषणादि उसी कूप में फेंके और चल पड़ा भागे । तृषातुर हो मूर्च्छित हुभा । शीतल मन्द पक्न के कोरों से मूर्छा दूर हुई । पुनः सांसारिक
अनेकान्त
अवस्था का चिन्तन किया । इसी समय गज द्वारा सिंह का मर्दन करते हुए उसने देखा इस संघर्ष से बचने के लिए बरांग तक पर चढ़ गये उतर कर बाद में उन्होंने सरोवर में नहाया । नहाते समय मगर ने पैर जकड़ लिया । धर्मध्यान किया । पैर छुड़ाने मे यक्ष ने सहायता की। वरांग की परीक्षा लेने एक देवी धाई। उसने स्वयं को स्वीकार करने की राजा से प्रार्थना की। परन्तु वरांग अपने एकपत्नीव्रत से डिगे नहीं।
पुन विपत्ति थाई वरांग को भीलों ने बांध लिया। बलि निमित्त उसे ले जाते समय भीलों को समाचार मिला कि भील राजा के पुत्र को सर्प ने काट लिया है । उसके कोई बचने का उपाय न देखकर वराग ने णमोकार मन्त्र पड़कर विष दूर किया प्रसन्न होकर भीलराज ने उसे छोड़ा और घर्ष-सम्पदा देनी चाही। पर वरांव ने अपने पर जाने की कामना व्यक्त की भीतराज ने सुरक्षा पूर्वक उसके लौटाने का प्रबन्ध किया । मार्ग में सार्थवाह मिलें। उन्होंने कोई विशेष व्यक्ति मानकर उसे सार्थवाह पति सागरवृद्ध के पास से गये वरोग को कोई महापुरुष समझकर सागरवृद्ध ने छोड़ दिया । उसे भोजन कराया ।
I
षष्ठ सर्ग - सागरवृद्ध सार्थवाहपति के साथ १२ हजार भीलों का युद्ध हुआ । पराजयोन्मुख सागरवूद्ध को वरांग ने विजय का हार पहनाया। सारी भील सेना मारी गई । वरांग भी घायल हुए। पर वे सागरवृद्ध की सेवा से शीघ्र ही स्वस्थ हो गये। इस उपलक्ष्य में ललितपुर
में एक बहुत बड़ा उत्सव मनाया गया। सागरवृद्ध श्रीर उनकी पत्नी ने वरांग को अपना धर्म पुत्र स्वीकार किया। वहां उसे नगर सेठ बना दिया गया। इस सर्ग का नाम ललितपुर प्रवेश रखा है ।
सप्तम सर्ग - इधर धर्मसेन से सेवकों ने समूची कहानी सुनाई कि किस प्रकार अश्व वराग को लेकर भाग गया। यह हृदय विदारक वृत्तान्त मुनकर भूपति मूर्च्छित हो गया। सचेत होने पर चारों भोर सेना भेजी उसे खोजने । वारांग के प्राभूषण तथा अवश्व के तो प्रस्थि-पंजर मिले पर वरांग नही मिल सके । संसार की यह विचित्र अवस्था देखकर भूपाल को संसार से वैराग्य होने लगा। मुनि का धर्मोपदेश पाया । तथा सुषेण को