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विश्व मैत्री का प्रतीक : पयूषण पर्व
प्रो० भागचन्द्र 'भागेन्दु' एम. ए. शास्त्री
'पर्व' शब्द अनेक अर्थो का ज्ञापन है । इसे बांस आदि की गांठ (ग्रन्थि) वाचक तो कहा हो गया है' तिथि-भेद ( अमावस्या - पूर्णिमा श्रादि प्रतिपद् और पंचदशी अर्थात् श्रमावस्या पूर्णिमा की सन्धि ), उत्सव तथा ग्रन्थ के अंश (जैसे भादि पर्व, वन पर्व, शान्ति पर्व प्रादि) का सूचक भी निरूपित किया है।'
साहित्य में उपर्युक्त सभी अर्थों में इसका प्रयोग प्राप्त होता है, किन्तु समाज में सामान्य रूप मे 'पर्व' का अभिप्राय किसी त्यौहार, उत्सव या विशिष्ट अवसर से ही समझा जाता है । इस अर्थ में प्रचलित 'पर्व' धर्म और समाज की सामूहिक अभिव्यक्ति है । मानव जीवन में जिस निष्ठा, लगन, मान्यता, साधना आदि को प्रतिष्ठित करने के माध्यम से उपलब्ध होती हैं । ऊपर कहा जा चुका है कि 'पर्व' शब्द उत्सव का वाची भी है। पर्व और उत्सव - दोनों ही समाज में आस्था और नवीन चेतना का संचार करते हैं । इनके माध्यम से समाज में अच्छे संस्कारों का निर्माण होता है । किसी भी धर्म, समय तथा राष्ट्र की सभ्यता एवं संस्कृति की अभिव्यक्ति पर्वो के द्वारा सहज ही हुआा करती है।
भारतवर्ष में समाज को स्वस्थ, संयमी, सन्तुष्ट तथा सुखी बनाने के लिए अनेक प्रकार के पर्व समय-समय पर मनाये जाते | संयमप्रधान जैनधर्म में भी इसी प्रकार
१. 'ग्रन्थि र्ना पर्व परुषी ।'
-'भ्रमरकोष' : (चौखम्बा संस्करण, १९५७ ई० ), २-४-१६२ ।
हिन्दी में इसे पोर या पोरा नाम से जाना जाता है। २. ' स पर्व सन्धिः प्रतिपत्यं च दश्यो यदन्तरम् ।'
- उपर्युक्त : १-४-७ ।
३. 'तिथिभेदे क्षणे पर्व ' उपर्युक्त : ३-३-१२१ ।
के अनेक पर्वों का प्रावधान है। वे पर्व केवल खेल-कूद, आमोद-प्रमोद, या हर्ष-विषाद तक ही सीमित न होकर मानव में परोपकार, अहिंसा, सत्य, प्रेम, उदारता, श्रात्मसयम, श्रात्म-मन्थन, मैत्रीभाव और विश्व बन्धुत्व प्रादि उच्चकोटि की भावनात्मक प्रवृत्तियों का संचार करते हैं ।
जैन पर्वो में 'पर्याषण पर्व' या 'दशलक्षण पर्व' का बहुत अधिक महत्व और प्रचलन है । 'पर्युषण' का शाब्दिक अर्थ - पूर्ण रूप से निवास करना, आत्म-रमण करना अथवा आत्म-साधना में तन्मय होना । जैन श्रागमों में इस अर्थ को व्यक्त करने वाले अनेक प्रकार के शब्द प्राप्त होते हैं। उदाहरणार्थं पज्जुषणा, पज्जूषणा, पज्जोसवणा इत्यादि । 'पर्यषण' उक्त प्राकृत शब्दों का संस्कृतीकरण है । इस पर्व में श्रात्मिक विकारों (क्रोध, मान, माया, लोभ, ईर्ष्या प्रादि) पर विजय प्राप्त करने का प्रयत्न किया जाता है ।
दिगम्बर परम्परा में वह पर्व भाद्रपद शुक्ल पंचमी से भाद्रपद (अनन्त) चतुर्दशी तक बड़े उत्साह के साथ सम्पन्न होता है जबकि श्वेताम्बर परम्परा मे भाद्रपद कृष्ण १२ से भाद्रपद शुक्ल ४ तक सोत्साह मनाया जाता है । सम्पूर्ण जैन संघ धार्मिक माराधना और प्रात्म-चिंतन में पूर्ण रूप से लीन हो जाता है । प्राबाल-वृद्ध सभी मे विशेष उत्साह दिखाई पड़ता है ।
पर्व के अन्त में 'क्षमा वाणी महोत्सव" होता है । इस अवसर पर सभी एक दूसरे से सस्नेह मिलते हैं तथा अपनी
४. इसमें श्रावक, श्राविका, मुनि तथा प्रायिका - सभी सम्मिलित हैं ।
५. इसकी मूल भावना प्रस्तुत गाया में देखी जा सकती है :--
खम्मामि सम्व जीवाणं सब्वे जीवा खमंतु मे । मिती मे सव्व भूदेसु बैरं ममं ण केण वि 1