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अनेकान्त
विचार' श्रावकाचार के रचयिता वसुनन्दि की ही परवर्ती गण जैन मन्दिर कारजा में उपलब्ध 'तत्वविचार' की दो रचना होनी चाहिए। क्योंकि दूसरे के ग्रन्थ की इतनी प्रतियों की सूचना मिली। उन्हे मैं अभी देख नही पाया गथाएं अपने मौलिक ग्रंथ मे कौन लेखक उद्धृत करेगा? हूँ। उपलब्ध होने पर प्रस्तुत पथ पर अधिक प्रकाश पड़ __'तत्वविचार' के सम्बन्ध मे जानकारी प्राप्त करते सकता है। समय श्री अगरचद जी नाहटा का 'तत्वविचार' के सबध अनेकान्त (वर्ष प्रथम, किरण ५) में स्व० ५० थी में एक लेख राजस्थान भारती' मे देखने को मिला । इसमे जुगलकिशोर जी मुख्तार ने 'तत्वविचार और वसुनन्दि' उन्होंने 'तत्वविचार' को राजस्थानी का गद्य-अथ बतलाते नाम से एक नोट लिखा है। इसमें उन्होने ग्रन्थ के १२ हए थोड़ा-सा परिचय दिया है। प्रकाशित प्रश मे 'तत्व- प्रकरणों का उल्लेख करते हुए ग्रन्थ परिमाण केवल ६५ विचार' की प्रथम गाथा के बाद राजस्थानी मे टीका है, गाथानों का बतलाया है, जबकि प्रस्तुन प्रति में ग्रथ की जिसमें बारह व्रतोंका वर्णन दिया गया है। और अन्त मे- गाथा सख्या २६५ है। यह भूल इस कारण हुई प्रतीत
एवं तत्सवियारं रइयं सुयसागराइ उरिय। होती है कि प्रति मे अन्तिम गाथा का न०६५ ही पड़ा योवक्खरं गहत्यं भव्वाण मणुग्गठाणं ॥ है। ग्रन्थकार अथवा लिपिकार न १०० गाथाओं के बाद
गाथा के द्वारा 'तत्वविचार' प्रकरण के समाप्ति की पुनः अगली गाथा मे १ नम्बर दिया है। अत: सरसरी सूचना दी गयी है । बीच में सम्यक्त्व का वर्णन करते हए निगाह मे देखने पर ऐसी भूल होनी स्वाभाविक थी। श्री एक गाथा और पाई है
मुख्नार साहब ने स्वयं 'पुरातन जैन वाक्यसूची' की प्रस्ताअरिहं देवो गुरुणो सुसाहुणो जिणमयं महापमाण । वना (प. १००) मे स्पष्ट लिखा है कि उन्होंने बम्बई में इच्चाइ सुहो भावो सम्मतं विति जग गुरुणो॥ थोड़े समय में इस ग्रथ की प्रति को देखा था। और उसी
उक्त ये दोनों गाथाएँ 'तत्वविचार' की चचित प्रति- प्राधार पर यह नोट लिखा है। लिपि में नहीं हैं। दूसरी बात, श्री नाहटा द्वारा प्रकाशित किन्तु 'तत्वविचार' की गाथाम्रो का मिलान करने पर इस प्रश मे १२ व्रतों का वर्णन भी 'तत्वविचार' के तो उनकी संख्या २६५ भी नही हो पाती। कारण, गाथा न. के वर्णन से भिन्न है। तथा अन्त में अरिहत देव का जो ११ के बाद १३ न. पड़ा है। ८१, ८२ न. की गाथाएँ स्वरूप उसमें वर्णित है वह भी श्वेताम्बर परम्परा से समान है। तथा ७ न. के बाद ८६ एव १८६ के १८८ अधिक सम्बन्ध रखता है । यथा-"परिहत देवता किसउ नं. लिख दिया गया है। इस तरह चार गाथाएं कम हो होइ ?......वारह भेदे तपु कीजइ । सत्तरहे भेदे सजमु जाने से २६१ गाथाएं ही बचती है। किन्तु ग्रन्थ मे जगह पालियइ ।। पाठ प्रवचन माता उपयोगु दीजइ । रजो हरणु जगह विषयभग को देखते हुए लगता है कि लिपिकारों की महत्ती । गोछ । पडिगहिउ घरइ ।' इन सब कारणों से असावधानी के कारण गाथाएँ "छूटी हैं। सम्भवतः ३०० श्री नाहटा जी द्वारा प्रकाशित प्रश प्रस्तुत 'तत्वविचार' गाथा-प्रमाण" यह ग्रन्थ रहा होगा। ग्रन्थ से सम्बन्धित नही माना जा सकता । दोनों के स्वरूप स्व० श्री मुख्तार सा० ने अपने उक्त नोट में कहा है एवं भाषा में भी भेद है। केवल प्रथम मगल गाथा कि यह ग्रन्थ श्रावकाचार के रचयिता वपुनन्दि का नहीं (णमिय जिण...) का दोनों में एक-सा पाया जाना इस हो सकता, क्योंकि उसमें कई जगह विषय क्रम भेद है । मोर संकेत करता है कि सम्भवतः किसी एक ही स्रोत से यथा-'तत्वविचार' मे व्रत प्रतिमा के वर्णन में 'गुणवत' दोनों जगह उक्त गाथा ग्रहण की गयी है।
और 'शिक्षावत' के इस प्रकार भेद किये गये है-१ गुणवत 'तत्वविचार' के सम्बन्ध मे जानकारी प्राप्त करते -दिग्विदिक प्रत्याख्यान, अनर्थदण्डपरिहार और भोगोसमय केटलाग अॉफ संस्कृत एण्ड प्राकृत मॉक सी. पी. पभोग संख्या । (२) शिक्षावत-त्रिकालदेव स्तुति, पर्व में (पृ. ६४७) में सेनगण जैन मन्दिर कारंजा और बलात्कार
४. दिसिविदिसि पच्चक्खाण मणत्यदंडाण होई परिहारो। ३. वर्ष ३, लंक ३-४, पु. ११८ ।
भामोवभोयसंखा एए हु गुणव्वया तिणि ॥१५७।।