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अनेकान्त
उपाधि मलधारी थी। इनका समय १५वीं शताब्दी का सहत्रकीति-यह भावसेन के पट्टधर विद्वान थे। पूर्षि है।
रत्नत्रय के प्राकर, कर्म-प्रन्थों के सार विचारक, व्रताधर्मसेन-यह भट्टारक विमलसेन के पट्टघर थे, जो दिक के अनुष्ठाता और अनेक सद्गुणों से परिपूर्ण थे। वस्तधर्म के धारक थे, जिन्होंने लोक में दश धर्मों का अपने समय के अच्छे विद्वान थे। इनके द्वारा प्रतिष्ठित विस्तार किया था । व्रत, तप शील गुणों में जो श्रेष्ठ थे, कोई प्रतिमा लेख और ग्रंथ रचना अभी तक मेरे देखने बाद्याभ्यान्तर परिग्रहों के निवारक, वे धर्मसेन मुनि में नहीं पाई। अन्वेषण करने पर उसकी प्राप्ति सम्भव जनता को संसार समुद्र से तारने वाले थे। वे काष्ठसंघ है। इनका समय भी विक्रम की पन्द्रहवीं शताब्दी है। के नायक थे और धर्मध्यान के विधान में दक्ष थे, तथा
भट्टारक गुणकोति-यह भट्टारक सहस्रकीर्ति के शिष्य सकल सघ मे शोभायमान थे। यह प्रतिष्ठाचार्य भी थे।
- एवं पट्टधर थे । १५वीं शताब्दी के प्रतिभा सम्पन्न विद्वान, इनके द्वारा प्रतिष्ठित तीन मूर्तियां पार्श्वनाथ, अजितनाथ
विशिष्ट तपस्वी और ज्ञानी थे। ये अपने समय के बड़े पौर वर्धमान तीर्थकर की हिसार जिले के मिट्टी ग्राम से
प्रभावक और प्रकृति से प्रशान्त एवं सौम्य मूर्ति थे । इनके मनीराम जाट को प्राप्त हुई थी। जो अब हिसारके मन्दिर
तप और चारित्र का प्रभाव तोमर वंश के शासकों पर में विराजमान हैं। जो १४४१० इंच के प्राकार को
पड़ा, जिससे वे जैनधर्म के प्रति निष्ठावान हुए। उनके लिए हुए हैं। तीनों मूर्तियां पहाड़ी मटियाले पाषाण की
तपश्चरण के प्रभाव से राज्य में किसी तरह की कोई हैं। इससे भट्टारक धर्मसेन का समय विक्रम की १५वी
सक्रान्ति या विरोध उत्पन्न नहीं हुआ। राजा गण राज्य शताब्दी का मध्यकाल जान पड़ता है।
कार्य का स्वतन्त्रता और विवेक से संचालन करते रहे। भावसेन-इस नाम के अनेक विद्वान हो गए है।
और अपनी प्रजा का पुत्रवत पालन करते हुए धर्म-कर्म में उनमें प्रस्तुत भावसेन काष्ठासंघ मथुरान्वय के प्राचार्य
निष्ठ रहकर राज्य वैभव की वृद्धि में सहायक हुए। थे, वे धर्मसेन के शिष्य एवं पट्टधर थे। तथा सहस्रकीति
कविवर रइधू और काष्ठासघ की पट्टावली प्रादि में इनका के गुरु थे। सिद्धान्त के पारगामी विद्वान थे, शीलादि
खुला यशोगान किया गया है। वे काष्ठासंघ रूप उदव्रतों के धारक, शम, दम और क्षमा से युक्त थे । वभा
धर्मोद्धारविधिप्रवीणमतिकः सिद्धान्तपारंगामी। रादि तीर्थ में हुए प्रतिष्ठोदय में जिन्होंने महान योग दिया था । और जो अपने गुणोंकी भावना में सदा तन्मय
शीलादि व्रतधारकः शम-दम-क्षान्तिप्रभा भासुरः । रहते थे। इनका समय विक्रम की १५वीं शताब्दी है ।
वभारादिक तीर्थराज रचित प्राज्यप्रतिष्ठोदय
स्तत्पट्टाब्ज विकासनकतरणिः श्री भावसेनो गुरुः ।। १. वत्थु सरूप धम्म-धुरधारउ, दहविहषम्मु भुवणि
-काष्ठासंघ मा० पट्टावली वित्थारउ । वय-तव-सील गुणहिं जे सारउ, वज्झन्भतर ४. कर्म-ग्रंथ विचारसार सरणी रत्नत्रयस्याकरः, संगणिवारउ, धम्मसेणु मुणि भवसर तारउ,
श्रद्धाबन्धुरलोकलोकनलिनीनायोपमः साम्प्रतम् । सम्मइ जिणचरिउ प्रशस्ति ।
तत्पट्टेऽचलचूलिकासुतरणि: कीति ऽपि विश्वंभरी। काष्ठासघ गणनायकवीरः, धर्मसाधनविधानपटीरः । नित्यं भाति सहस्रकीति यतिपः क्षान्तोऽस्ति दैगम्बरः । राजते सकल संघसमेत, धर्मसेन गुणरेव चिदेतः ।।
काष्ठासंघ मा०प० ___-काष्ठासघ मा० पट्टावली
५. तासुपट्टि उदयहि दिवायरु, बज्झन्भतरुन्तव-कय-पायरु २. संवत् १४४२ वैशाख सुदी ५ शनो श्री काष्ठासघे
बुहयण-सत्थ-प्रत्य-चितामणि, सिरिगुणकित्ति-सूरि माथुरान्वये प्राचार्य श्री धर्मसेनदेव. इन्द्रमीनाकः
मानव जणि । भयोतक वंशे सा० जाल्ह सहाय [भा०] जियतो ।
-सम्मइ जिन चरित ३. भाव सेणु पुण भाविय णियगुण ।
(क) दीक्षा परीक्षा-निपुणः प्रभावान् प्रभावयुक्तो सम्मइजिण चरिउ प्रशस्ति ।
धमदादि मुक्तः ।