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अनेकान्त
साथियो !
प्रत्येक राष्ट्र, जाति एवं व्यक्ति सभी शान्ति तथा मंत्री चाहते हैं फिर भी क्यों हो नही पाती ? इसका मूल कारण यही है शान्तिपूर्ण सहअस्तित्व एवं श्रन्तराष्ट्रीय पारस्परिक सहयोग की भावना के प्रति बड़े बडे राष्ट्रों के अधिनायकों के हृदय मे दृढ श्रद्धा नहीं है ।
यदि हम वास्तव में एक विश्वराष्ट्र, एक विश्वजाति एवं विश्वनागरिक की कल्पना को मूर्त स्वरूप देना चाहते है तो सर्वप्रथम सभी राष्ट्रों में सहअस्तित्व एवं पारस्परिक सहयोग की भावना मे दृढ श्रद्धा पैदा करनी होगी । सम्यग्दृष्टि - सच्ची श्रद्धा नहीं होने के कारण ही बड़े-बड़े राष्ट्रो के अधिनायक स्वीकृत सिद्धान्तों से भटक जाते है । महामानव महावीर ने स्वीकृत सिद्धान्तो पर दृढ रहने के लिए चार अंतरंग साधन बताये है जो साध्य की सिद्धि में उपयोगी सिद्ध हो सकते है (१) स्वीकृत सिद्धान्त में निःशकित रहे । (२) स्वीकृत सिद्धान्त के अतिरिक्त प्रलोभन में पड कर दूसरे सिद्धांतो की कांक्षा न करें ।
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( ३ ) स्वीकृत सिद्धान्त मे फलाकांक्षा नही रखते हुए, दृढ़ता रखें ।
(४) स्वीकृत सिद्धान्त के अनुपालन मे श्रमूढ दृष्टि रखे अर्थात् पूर्वाग्रहों को, परम्परागत रूढ़ि को एक बाजू रखकर सत्यदृष्टि एवं सत्याग्रह को ही बल दें ।
यदि स्वीकृत सिद्धान्त के परिपालन मे निःशंका, निःकांक्षा, निर्विचिकित्सा एव श्रमूढदृष्टि श्रा जाती है तो विश्वास रखें कि सहअस्तित्व एवं पारस्परिक सहयोग का शान्ति पथ अवश्य प्रशस्त होकर ही रहेगा ।
इसी प्रकार जो-जो राष्ट्र सह-अस्तित्व एवं सहयोग के शान्ति प्रस्तावों को स्वीकार कर लेते हैं उन्हें निम्नानुसार सहयोग देकर सह-अस्तित्व का प्रत्यक्ष परिचय देना चहिए अर्थात् उन छोटे-बड़े राष्ट्रों को(१) प्रोत्साहन देना ( उपबृंहण), सहयोग देना । (२) स्थिरीकरण - जो राष्ट्र विचलित हो उठते है उन्हें सहकार देकर स्थिर करना ।
(३) वात्सल्य - स्नेह सद्भाव द्वारा राष्ट्र विकास में सहयोग देना एव उनके प्रति विश्व वात्सल्य का परिचय देना ।
(४) प्रभावना -सह-अस्तित्व एव सहयोग के सिद्धान्तों को यशस्वी एवं प्रभावशाली बनाने के लिए सयुक्त प्रयत्न
करना ।
यदि आज इस सम्मेलन मे हम लोगों ने सह-अस्तित्व गव सहयोग की भावना को मूर्त स्वरूप देने का निष्ठापूर्वक निश्चय कर लिया तो विश्व मे 'सवोदय' का सूर्योदय अवश्य होगा । इस सर्वोदय की किरणे पाकर सारा विश्व धन्य धन्य और कृतकृत्य हो जायेगा ।
युगदृष्टा भ० महावीर ने शोषण, दोहन और उत्पीउन पर आधारित आपाधापी का अपरिग्रह की मौलिक व्याख्या प्रस्तुत कर, अन्त कर दिया था । यदि श्राज महावीर का 'प्र' मूलाक्षर अर्थात् श्रहिसा, अनेकान्त, अभय, अपरिग्रह, अस्वाद, अद्रोह आदि अकारादि मूलाक्षरसिद्धान्त मानवमात्र की श्रात्मा का संगीत बन जाए तो राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय तनाव सभी द्वन्द समाप्त हो सकते है । हिंसा और अनेकान्त यही भगवान् महावीर के जीवन का भाष्य है और यही सर्वोदय के मूलमन्त्र है । 'सर्वोदयं तीर्थमिदं तवैव ।'
भगवान् महावीर के तीर्थ को 'सर्वोदयतीर्थ' ही कहा गया है— अर्थात् जहाँ सर्वोदय - सबका भला करने की भावना - अन्तर्निहित हो वही महावीर का 'शासनतीर्थ' है ।
मुझे इस बात का गौरव है कि मेरा भारत देश और मेरा जैनधर्म सहप्रस्तित्व एव अन्तर्राष्ट्रीय पारस्परिक सहयोग द्वारा विश्वशाति में विश्वास ही नही करता श्रपितु सहस्त्राब्दों से विश्वशांति एवं विश्वमंत्री का जीवन-संदेश देने में अग्रसर रहा है। आज हमारे मित्र राष्ट्र के धर्मनायकों ने सह अस्तित्व एवं सहयोग द्वारा विश्वशांति स्थापित करने की दिशा में जो ठोस कदम उठाकर धर्मनीति का परिचय दिया है इसके लिए हम सम्मेलन के आयोजक धन्यवादाहं है ।
अन्त में हम सबकी यही मन्तर्भावना हो कि - सर्वे सुखिनः सन्तु सर्वे सन्तु निरामयाः । सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःख भाग्भवेत् ॥