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ग्वायलिर के काठासंघो कुछ भट्टारक
यह मलयकीर्ति वही जान पडते है जिन्होंने सं० आचरण की विधि और फल का प्रतिपादन करते हुए व्रत १४९४ में मूलाचार को प्रशस्ति लिखी थी । यह प्रतिष्ठा की महत्ता पर अच्छा प्रकाश डाला है। इनमे से सवण चार्य भी थे। इनके द्वारा प्रतिष्ठित मूर्तियां मन्दिरों में वारसि कहा और लब्धि विधान कहा, इन दो कथाओं को अनेक मिलेंगी किन्तु मुझे तो केवल दो मूर्ति लेख ही प्राप्त ग्वालियर के संघपति उद्धरण के जिन मन्दिर में बैठकर हो सके है। अन्वेषण करने पर और भी मिल सकते है। सारंगदेव के पुत्र देवदास की प्रेरणा से रचा गया है। इनकी रचनाएं अभी तक प्राप्त नहीं हुई। जिनका अन्व- पुष्पाजलि, दहलक्खणवय कहा मोर अनंतवय कहा इन षण करना आवश्यक है। या कोई भिन्न मलयकीति है। तीनो को जयसवालवंसी लक्ष्मणसिंह चौधरी के पुत्र पंडित
भट्टारक गुणभद्र-भ० मलयकीति के पटटधर एवं भीमसेन के अनुरोध से रचा है । और नरक उतारी दुद्धाशिष्य थे। पाप अपभ्रंश भाषा के विद्वान कवि और रस कहा, ग्वालियर निवासी साहू वीषा के पुत्र सहणपाल प्रतिष्ठाचार्य थे। आपने अपने जीवन को प्रात्म-साधना ।
के अनुरोध से रची गई है। भ० गुणभद्र नाम के अनेक के साथ धर्म और समाज-सेवा में लगाया था। आपके
विद्वान हो गए है। परन्तु उनमे प्रस्तुत गुणभद्र सबसे द्वारा रची गई १५ कथाए खज़र मस्जिद दिल्ली के पंचा
भिन्न जान पड़ते है। इनका समय विक्रम की १६वीं यती मन्दिर के एक गुच्छक मे उपलब्ध है । जिन्हे उन्होंने
शताब्दी है। इनके समय में अनेक ग्रन्थों की प्रतिलिपि ग्वालियर में रहकर भक्त श्रावको की प्रेरणा से बनाई
सो की गई, और मूर्तियों की प्रतिष्ठा भी हुई है। उनमें से थी, जिनके नाम इस प्रकार है -१. सवणवारसि कहा,
दो मूर्ति लेख यहाँ दिये जाते है। २. पक्खवइ कहा, ३. प्रायास पंचमी कहा, ४. चदायणवय
१. स० १५२६ वैशाख सुदि ७ बुधे श्री काष्ठासंघ कहा, ५. चदण छठ्ठी कहा, ६. दुग्धारस कहा, ७. णिदुह
भ. श्री मलयकीति भ० गुणभद्राम्नाये अग्रोत्कान्वये मित्तल मत्तमी कहा, ८. मउड सत्तमी कहा, ६. पुष्पांजलि कहा,
गोत्रे आदि लेख है । यह घातु की मूर्ति भ० आदिनाथ की
यक्ष यक्षिणी सहित है। १०. रयणत्तय कहा, ११. दहलक्खणवयकहा, १२.
२. सं० १५३१ फाल्गुण सुदि ५ शके काप्ठासंघे भ. प्रणतवय कहा, १३. लद्धिविहाण कहा, १४. सोलहका
गुणभद्राम्नाये जैसवाल सा. काल्हा भार्या [जयश्री] रणकहा रयणत्तय कहा, १५. सुगध दहमी कहा।
प्रादि । यह मूर्ति १८ इच धातु की है। कवि ने इन कथानों मे, व्रत का स्वरूप, उनके
इस सब विवेचन से पाठक भट्टारक गुणभद्र के १. स. १५०२ वर्षे कार्तिक सुदी ५ भौमदिने श्री काष्ठा. व्यक्तित्व और कृतित्व का परिचय प्राप्त कर सकते हैं।
संघे श्री गुणकीर्तिदेवाः तत्पी श्री यशःकीति देवाः भानुकोति-यह भट्टारक गुणभद्र के पट्टधर थे। तत्पटटे मलयकीर्तिदेवान्वये साह नरदेव तस्य भार्या अपने समय के अच्छे विद्वान, उपदेशक और प्रतिष्ठाचार्य जणी।
थे। शब्द शास्त्र, तर्क, काव्य अलंकार एवं छन्दों मे -~-अनेकान्त वर्ष १०, पृ० १५६ निष्णात थे। इनके द्वारा लिखी हुई एक रविव्रत कथा स० १५१० माघ सदि १३ सोमे श्री काष्ठासघे ६. यी जानातिसुशब्दशास्त्रमनघ काव्यानि तर्कादिद, प्राचार्य मलयकीर्ति देवाः तः प्रतिष्ठितम् ।
सालाकार गुणयुतानि नियत जानाति छन्दासि च । गुणगणमणिभूषो बीतकामादि शेषः,
यो विज्ञानयुतो दयाशमगुणर्भातीहि नित्योदय, कृत जिनमत तोषस्तत्पदेशान्त वेय. ।
जीयाच्छी गुणभद्रमूरि...श्रीमानुकीर्ति गुरुः ।। धनचरणविशेष: सत्यघोषे विरोधो,
कमलकित्ति उत्तमखम धारउ, जयति च गुणभद्र' गरिरानन्दभूरिः ।
भवह भव-अम्भोणिहितारउ ।
-काष्ठासं मा०प० तस्स पट्ट कणयट्टि परिट्ठउ, २. देखो, जैन अन्य प्रशस्ति संग्रह भा०२ पृ० ११२ । सिरि सुहचंद सु-तव उक्कट्ठिउ ।।