________________
युक्त्यनुशासन : एक अध्ययन
उक्त प्रकार से समन्तभद्र अभिहित ही है ।
"..स्तुतिगोचरत्वं निनीषवः स्मो वयमद्य वीर" (का.१) परवर्ती विद्यानन्द, जिनसेन (हरिवंश पुराणकार) जैसे इससे "वीर-स्तुति", 'न रागान्नः स्तोत्रं भवति भव पाशमूर्धन्य ग्रंथकारों ने समन्तभद्र द्वारा दत्त नाम से ही इसका छिदि मुनौ" (का०६३) और "स्तुतः शक्त्या "वीरो" उल्लेख किया है। उन्होंने वह नाम स्वयं कल्पित नहीं किया। (का० ६४) इन पदों से तथा "स्तोत्रे युक्त्यनुशासने
एक प्रश्न और यहाँ उठ सकता है। वह यह कि यदि जिनपतेर्वीरस्य निःशेषतः" (टी०८९) इस टीका पथ से उक्त नाम स्वयं समन्तभद्रोक्त है तो उसे उन्होंने ग्रथ के "वीर-स्तोत्र", "इति युक्त्यनुशासने परमेष्ठिस्तोत्रे प्रादि अथवा अन्त में ही क्यों नहीं दिया, जैसा कि दूसरे प्रथमः प्रस्तावः" (टी० पृ० ८६) इस मध्यवर्ती टीकाग्रंथकारों की भी परम्परा है ? समन्तभद्र ने स्वयं अपने पुष्पिकावाक्य से "परमेष्ठिस्तोत्रे" और "श्रद्धागुणज्ञतयोरेव अन्य ग्रंथों के नाम या तो उनके प्रादि में दिये हैं और या परमात्मस्तोत्रे युक्त्यनुशासने प्रयोजकत्वात्" (टी० पृ० अन्त में । देवागम (आप्तमीमांसा) में उसका नाम प्रादि १७८) इस टीका-वाक्य से "परमात्म-स्तोत्र" ये चार नाम में देवागम और अन्त में प्राप्तमीमांसा निर्दिष्ट है। स्वय. फलित होते है। वस्तुतः समन्तभद्र ने इसमें भगवान् म्भूस्तोत्र में उसका नाम प्रारम्भ में "स्वयम्भुवा" (स्व- वीर और उनके शासन का गुणस्तवन किया है। प्रत: यम्भू) के रूप में पाया जाता है। इसी प्रकार रत्नकरण्ड- इनके ये नाम सार्थक होने से फलित हों तो कोई पाश्चर्य श्रावकाचार में उसका नाम उसके अन्तिम पद्य में पाये नही है । ग्रंथ की प्रकृति उन्हें बतलाती है। "...रत्नकरण्डभावं" पद के द्वारा प्रकट किया है। परतु नाम पर प्रभावप्रस्तुत युक्त्यनुशासन में ऐसा कुछ नहीं हैं ?
लगता है कि समन्तभद्र ने युक्त्यनुशासन की रचना इसका समाधान यह है कि ग्रन्थकार अपने प्रथ का नागार्जन की 'युक्तिपष्ठिका' से प्रेरित होकर की नाम उसके प्रादि और अन्त की तरह मध्य में भी देते है। 'युक्तिपष्ठिका' ६१ पद्यों की बौद्ध दार्शनिक कृति हुए मिलते हैं। उदाहरण के लिए विषापहारकार घन- है। इसमें नागार्जुन ने, जो माध्यमिक (शून्यात)
जय को लिया जा सकता है। धनञ्जय ने अपने स्तोत्र सम्प्रदाय के प्रभावशाली विद्वान् हैं, और जिन्होंने प्राचार्य 'विषापहार' का नाम न उसके प्रारम्भ में किया और न कुन्दकुन्द तथा गृद्धपिच्छ की समीक्षा की है', भाव, प्रभाव अन्त में। किन्तु स्तोत्र के मध्य में एक पद्य (१४) मे
२. १० फरवरी १९४७ में शान्तिनिकेतन के शोधकर्ता प्रकट किया है, जिसमें विषापहार' पद पाया है और
श्रीरामसिंह तोमर द्वारा युक्तिषष्ठिका के १ से ४० उसके द्वारा स्तोत्र का नाम 'विषापहार' मूचित किया है ।
संख्यक पद्यों में से केवल विभिन्न सख्या वाले २३ इसी प्रकार समन्तभद्र ने इस ग्रन्थ के मध्य मे "दृष्टागमा
पद्य प्राप्त हुए थे। उनसे ज्ञात हमा था कि चीनी भ्यामविरुद्धमर्थप्ररूपणं युक्त्यनुशासनं" (का० ४८) इस
भाषा मे जो युक्तिषष्ठिका उपलब्ध है उस पर से ही कारिका वाक्य में प्रयुक्त 'युक्त्यनुशासन ते' पद से इसका
उक्त पद्य संस्कृत में अनूदित हो सके हैं। शेष का 'युक्त्यनुशासन' नाम अभिहित किया है। फलतः उत्तर
अनुवाद नही हुमा। मालूम नहीं, उसके बाद शेष वर्ती ग्रंथकारों में इसका यही नाम विश्रुत हया और
पद्यों का अनुवाद हो सका या नहीं। प्रकट है कि उन्होंने उसी नाम से अपने ग्रंथों में निर्देश किया। प्रतः
कम-बढ़ पद्य-संख्या होने पर भी युक्तिषष्ठिका इसका मूल नाम 'युक्त्यनुशासन' (युक्ति शास्त्र) है।
'षष्ठिका' कही जा सकती है। विशतिका प्रादि मूल ग्रंथ और उसकी विद्यानंद-रचित संस्कृत-टीका
नामों से रची जाने वाली रचनामों से कम-बढ़ पर से इसके अन्य नाम भी प्राप्त होते हैं । वे हैं-वीर
श्लोक होने पर भी उन्हें उन नामों से अभिहित स्तुति, वीर-स्तोत्र, परमेष्ठि-स्तोत्र और परमात्मस्तोत्र ।
किया जाता है। लेखक। १. 'विषापहारं मणिमौषधानि मन्त्रं समुद्दिश्य रसा. ३. 'नागार्जुन पर कुन्दकुन्द और गृपिच्छका प्रभाव
यनं च। -बिषपहारस्तोत्र श्लो०१४ । शीर्षक मेरा प्रकाश्यमान लेख।