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भगवान ऋषभदेव
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पौर सुन्दरी नाम की कन्या का जन्म हुआ था। जिनका उनकी रक्षा की। पालन-पोषण माता-पिता ने सम्यक रीति से किया। राज्यप्रादर्श गृहस्थाश्रम का मूलाधार विवेक और सयम है। किसी एक दिन भगवान ऋषभदेव राजसिंहासन पर सन्तान चाहे पुत्र हों या पुत्री, उनका भात्मज्ञानी और विराजमान थे। राजसभा लगी हुई थी और नीलांजना विवेकी होना आवश्यक है। इसी कारण भगवान ऋषभ- नाम की अप्सरा नृत्य कर रही थी। नृत्य करते करते देव ने अपने पुत्रो से पहले पुत्रियों को शिक्षित किया था। यकायक नीलाजना का शरीर नष्ट हो गया, तभी दूसरी उन्होंने ब्राह्मी और सुन्दरी को अपने पास बैठा कर काष्ठ भासरा नृत्य करने लगी। किन्तु इस प्राकस्मिक घटना से पट्रिका पर चित्राण करके उनका मन ललितकला के भगवान का चित्त उद्विग्न हो उठा-इन्द्रिय भोगों से सौन्दर्य से मुग्ध कर लिया। सुन्दर विटपों और मनोहर विरक्त हो गया। उन्होंने तुरन्त भरत को राज्य और शावक शिशुओं के रूप को देखकर उन्हें बडा कौतहल बाहुबली को युवराज मोर अन्य पुत्रों को यथायोग्य राज्य होता था। इस तरह उनका मन शिक्षा की अोर पाक- देकर प्रव्रज्या ग्रहण कर ली। उनकी देखादेखी और भी र्षित करते हुए ऋषभदेव ने ब्राह्मी को अक्षर लिपिका अनेक राजामों ने दीक्षा ली; किन्तु वे सब भूख प्यास बोध कराया, वह लिपि ब्राह्मी के कारण 'ब्राह्मीलिपि' के मादि की बाधा को न सह सके और तप से भ्रष्ट हो नाम से लोक में ख्यात हुई। भगवान ऋषभदेव ने दूसरी गए। छह मास के बाद जब उनकी समाधि भंग हुई, तब पुत्री सुन्दरी को अक विद्या सिखलाई। उसी समय उन्होंने उन्होंने भाहार के लिए विहार किया। उनके प्रशान्त अकों का प्राधार निर्धारित किया मोर गणित शास्त्र के नग्न रूप को देखने के लिए प्रजा उमड़ पड़ी, कोई उन्हे बहुत से गुर बताये। सगीत और ज्योतिष का भी परि- वस्त्र भेट करता था, कोई प्राभूषण और कोई हाथी घोड़े ज्ञान कराया। आज भी ब्राह्मी लिपि और अङ्कगणित लेकर उनकी सेवा में उपस्थित होता था। किन्तु उन्हें मिलते है। भरतादि सभी पुत्रों को भी शस्त्र और भिक्षा देने की कोई विधि न जानता था, इस तरह से शास्त्र विद्या मे निष्णात बनाया था। इस तरह ऋषभदेव उन्हें विहार करते हुए छह महीने बीत गए। ने अपने पुत्र और पुत्रियों को विद्याओं और कलाओं में
एक दिन घूमते-घामते वे हस्तिनापुर में जा पहुंचे। निष्णात बना दिया और उनके कर्ण छेदन मुडन प्रादि
वहां का सोमवंशी राजा श्रेयान्स बड़ा दानी था, उसने सस्कार किए। इन पुत्रो मे भरत पाद्य चक्रवर्ती थे जिनके
भगवान का बड़ा भादर-सत्कार किया। भोर पादर पूर्वक नाम से इस देश का नाम भारतवर्ष पड़ा। ऋषभदेव ने
उनका प्रतिगृह करके उच्चासन पर बैठाया, श्रद्धा और चिरकाल तक प्रजा का हित साधन किया और शासन द्वारा
भक्ति से उनके चरण घोए, पूजन की और फिर नमस्कार ६ पहले इस देश का नाम हिमवर्ष था, नाभि और करके बोला-भगवन् ! यह इक्षुरस निर्दोष और प्रासुक ऋषभदेव के समय प्रजनाम । किन्तु ऋषभ के पुत्र है, इसे पाप स्वीकार करें। तब भगवान ने खड़े होकर भरत के समय इस देश का नाम भारतवर्ष पड़ा। अपनी प्रजली मे रस लेकर पिया। उस समय लोगों को विष्णुपुराण में लिखा है
जो मानन्द हुमा वह वर्णनातीत है। चूंकि भगवान का ऋषभात् भरतो जज्ञे ज्येष्ठः पुत्र शताग्रजः । यह पाहार वैशाख शुक्ला तीज के दिन हुमा था, इसी से ततश्च भारत वर्ष मेतल्लोकेषु गीयते ॥
यह तिथि 'अक्षय तृतिया'-प्रखती' कहलाती है। -विष्णुपुराण अंश २, म०१ माहार लेकर भगवान फिर वन को चले गए और प्रात्मभागवत में भी ऋषभ पुत्र महायोगी भरत से ही ध्यान में लीन हो गए । इस तरह ऋषभदेव ने एक हजार भारत नाम की ख्याति मानी गई है।
वर्ष तक कठोर तपश्चरण द्वारा प्रात्म-शोधन किया। येषां खलु महायोगी भरतो ज्येष्ठः श्रेष्ठ गुणश्चासीत्। तपश्चरण से उनका शरीर अत्यन्त कृश हो गया था येनेदं वर्ष भारतमिति व्यपदिशन्ति ।"
किन्तु पात्मबल मौर मारम तेज अधिक बढ़ गया था।