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अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग व शान्ति किस प्रकार प्राप्त हो सकती है?
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सम्वेसि जीवियं पियं, नाइवाएज्ज कंचणं। वैरभाव का शमन करने से ही मैत्री भावना पैदा होती
-पाचारांग १-२-३ है। वास्तव में सर्वभत हितकारी अहिंसा भगवती है। तुमं सि नाम तं चेव जं हंतव्वं ति मन्नसि। इसलिए अहिंसा परम 'ब्रह्म' रूप कही गई है। तुम सि नाम तं चेव जं प्रज्जावेद व्वं ति मन्नसि। यदि विश्व के नागरिक महावीर द्वारा प्ररूपित तुम सि नाम तं चेव जं परियावेयव्य ति मनसि । अहिंसा को जीवन में उतारें तो विषमता समता के रूप में
--प्राचारांग १-५.५ परिवर्तित हो जाय और विश्वशाति स्थापित हो जाय । 'सभी प्राणियो को अपनी जिन्दगी प्यारी है। सबको सुख अच्छा लगता है और दुःख बुग। वध सबको अप्रिय दष्टि' है। अनेकान्त दृष्टि या स्यावाद कथनशैली भी है और जीवन प्रिय । सब प्राणी जीना चाहते है। कुछ वैचारिक हिंसा की ही एक प्रणाली है। सहिष्णुता-समभी हो, सबको जीवन प्रिय है। सभी सुख-शान्ति चाहते वय दर्शिता एवं उदारता अनेकान्त का प्रगट स्वरूप पारहैं, अतः किसी भी प्राणी की हिसा न करो।' क्योकि म्परिक विवादों को मिटाकर विश्वमैत्री स्थापित करने की
'जिसे तू मारना चाहता है, वह तू ही है। एक व्यावहारिक प्रक्रिया है। "जो सत्य है वही मेरा है जिसे तू शासित करना चाहता है. वह तू ही है। और दूसरे की सच्ची बात भी स्वीकार्य सही हो सकती
जिसे तू परिताप देना चाहता है, वह तू ही है।' है"-यदि इस अनेकान्त की जीवन-दृष्टि को अपनाई जाय प्रेम
तो विश्व के सभी वैचारिक द्वन्द्व ही समाप्त हो सकते हैं। जो व्यक्ति निकट परिचय में प्राते है उसके साथ अनाग्रहवृत्ति और मध्यस्थ बुद्धि का समन्वय ही 'अनेकांत विग्रह और विरोध मत करो। प्रत्येक व्यक्ति को अपना या स्याद्वाद' है । यदि विचारों के समन्वय एवं पारस्परिक बन्धु समझो और उसके प्रति मैत्रीभावना का-विश्व- सहयोग द्वारा आपस के झगड़े को निपटाने के लिए अनेवात्सल्य का विकास करो-मित्ती मे सव्व भएसु सबके कान्त सिद्धान्त को अपनाया गया तो विश्वमैत्री स्थापित प्रति मेरा मंत्रीभाव है-यह प्रेम का सन्देश है।
करने में यह महामूल्यवान योगदान दे सकता है। वास्तव सेवा
मे विचार वायु के रोग से पीडित मानव-समाज को प्रारोग्य __सेबा का तीसरा उदघोष सामाजिक सम्बन्धों की प्रदान करने वाली यह एक अमोघ प्रौषध है। यदि मधुरता एव प्रानन्द का मूल स्रोत है। जहाँ दो व्यक्तियो स्याद्वाद-अनेकान्त दृष्टि का सामाजिक एवं राजकीय उलमें परस्पर सहयोग नही, वहा सामाजिक सम्बन्ध कितने झनों को सुलझाने में उपयोग किया जाय तो विश्व का दिन टिकेंगे ! सेवा के क्षेत्र में महावीर ने जो सबसे बडी तनावपूर्ण वातावरण ही समाप्त हो जाय और उसके स्थान बात कही वह यह थी कि-"मेरी उपासना से भी अधिक पर मैत्री और शान्ति की स्थिति पैदा हो जाय । महान् है किसी वृद्ध, रुग्ण और असहाय मनुष्य एवं प्राणी भ० महावीर के जीवन का तीसरा प्रखर स्वर हैकी सेवा । सेवा से व्यक्ति साधना के उच्चतम पद-तीर्थक अपरिग्रह । प्रासक्ति ही जीवन की विडम्बना का मूल है। रत्व को भी प्राप्त कर सकता है।"
आज मानव-समाज स्वार्थ, माशा और तृष्णा के अन्दर -अहिंसा की यह त्रिवेणी अहंकार की कलुषता को इस प्रकार उलझ रहा है कि वह कर्तव्य का भान ही भूल घोती है, प्रेम और मैत्री की मधुरता सरसाती है और गया है। यही कारण है कि एक पोर धन के अंबार लग सेवा-सहयोग को उर्वर बनाकर सर्वतोमुखी विश्वकल्याण रहे है और दूसरी भोर भूखमरी और गरीबी से मानव की भावना पैदा करती है। वास्तव मे 'अहिंसा' जीवन- छटपटा रहा है। संस्कृति का प्राण है। मानवीय चिन्तन का नवनीत पंदा समाज की दुख-दरिद्रता की जड़ सामाजिक विषमता करती है। समता और मानवता मूलाधार है। ज्ञानी के (Disparity) ही है। इस विषमता को दूर करने के शान का सार है। वैर से वैर शान्त नहीं होता है अपितु लिए समाज के धनाढ्य एवं श्रीमंत वर्ग को महावीर ने