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अनेकान्त
मादिरूप से तत्त्वका निरास करके शून्यावत की सम्पुष्टि की मीमांसा करके वह प्राप्त वीर को और प्राप्त-शासन वीरहै। युक्त्यनुशासन में ६४ पद्य हैं और उनमें भाव, प्रभाव शासन को सिद्ध किया है तथा अन्यो को अनाप्त और प्रादि अनेकान्तात्मक वस्तु की स्याद्वाद द्वारा व्यवस्था की उसके शासनों को अनाप्त शासन बतलाया है। इस गयी है। प्रतएव युक्त्यनुशासन नागार्जुन की युक्तिषष्ठिका मीमांसा (परीक्षा) की कसौटी पर कसे जाने और सत्य के अन्तर में लिखा गया प्रतीत होता है। इस प्रकार की प्रमाणित होने के उपरान्त वीर और उनके स्याद्वाद-शासन परम्परा दार्शनिकों में रही है। उद्योतकरके न्यायवार्तिकका की स्तुति (गुणाख्यान) करने के उद्देश्य से समन्तभद्र ने उत्तर धर्मकीति ने प्रमाणवातिक और कुमारिल ने मीमांसा युक्त्यनुशासन की रचना की है। यह उन्होंने स्वय प्रथम श्लोकवार्तिक द्वारा तदनुरूप नामकरण पूर्वक दिया है। कारिका' के द्वारा व्यक्त किया है। उसमें प्रयुक्त “प्रद्य" भकलंक का तत्त्वार्थवातिक और विद्यानन्द का तत्त्वार्थ- पद तो, जिसका विद्यानन्द ने 'परीक्षा के अन्त में यह श्लोकवार्तिक भी उक्त परम्परा की ही प्रदर्शक रचानाए अर्थ किया है, सारी स्थिति को स्पष्ट कर देता है। हैं। यूक्ति शब्द से प्रारम्भकर रचे जाने वाले ग्रन्थो के टीका के अनुसार यह ग्रंथ दो प्रस्तावों में विभक्त है। निर्माण की भी परम्परा उत्तर काल में दार्शनिको में रही पहला प्रस्ताव कारिका १ से लेकर ३६ तक है और है। फलत: 'युक्तिदीपिका' (साख्यकारिका-व्याख्या) जैसे दूसरा कारिका ४० से ६४ तक है। यद्यपि ग्रंथ के अन्त ग्रंथ रचे गये है।
मे पहले प्रस्ताव की तरह दूसरे प्रस्ताव का नाम-निर्देश यहाँ यह भी उल्लेख्य है कि लंकावतार सूत्र पद्यकार
नही है, व्याख्याकार ने "इति श्रीमद्विद्यानन्द्याचार्यकृतो ने' बुद्ध के सिद्धान्त (देशना) को “चतुर्विधो नयविधिः
युक्त्यनुशासनालङ्कारः समाप्तः।" इस समाप्ति-पुष्पिकासिद्धान्तं युक्तिदेशना" (श्लो० २४६) शब्दों द्वारा 'युक्ति- वाक्य के साथ ग्रन्थों को समाप्त किया है, तथापि ग्रन्थ देशना' प्रतिपादित किया है। समन्तभद्र ने वर्धमान वीर के मध्य (का०३६] में जब टीकाकार द्वारा स्पष्टतया के सिद्धान्त (शासन) को 'युक्त्यनुशासन' कहा है । अतः प्रथम प्रस्ताव की समाप्ति का उल्लेख किया गया है तो असम्भव नहीं कि युक्त्यनुशासन युक्त देशना का भी शेषांक द्वितीय प्रस्ताव सूतरां सिद्ध हो जाता है । तथा जवाब हो; क्योंकि दोनों का अर्थ प्राय: एक ही है, जो शेषांशके बीच मे किसी अन्य प्रस्ताव की कल्पना है नहीं। 'यक्ति पुरस्सर उपदेश' के रूप में कहा जा सकता है। प्रश्न हो सकता है कि प्रस्तावों का यह विभाजन अन्तर यही है कि लंकावतार सूत्र पद्यकार बुद्ध के उपदेश मूलकार कृत है या व्याख्याकारकृत ? इसका उत्तर यह को 'युक्ति पुरस्सर उपदेश' कहते हैं और समन्तभद वीर है कि यद्यपि ग्रंथकार ने उसका निर्देश नही किया, तथापि के उपदेश को समन्तभद्र इतना विशेष कहते है कि उस ग्रन्थ के अध्ययन से अवगत होता है कि उक्त प्रस्गवयुक्ति पुरस्सर उपदेश को प्रत्यक्ष और पागम से अबाधित विभाजन ग्रन्थकार को अभिप्रेत है, क्योंकि जिस कारिका भी होना चाहिए, मात्र युक्ति बल पर ही उसे टिका नहीं (३६) पर व्याख्याकार ने प्रथम प्रस्ताव का विराम माना होना चाहिए।
है वहाँ ग्रन्थकार की विचार-धारा या प्रकरण पूर्वपक्ष प्रन्य-परिचय---
(एकान्तवाद निरूपण व समीक्षा) के रूप में समाप्त है युक्त्यनुशासन ६४ पद्यों की विशिष्ट दार्शनिक रचना है । देवागम' युक्तिपूर्वक प्राप्त और प्राप्त-शासन की
और कारिका ४० से ६४ तक उत्तर पक्ष (अनेकान्त
निरूपण) है । यतः प्रथम प्रस्ताव में मुख्यतया एकान्तवादों १. लंकावतार सूत्र पद्य भाग की एक दुर्लभ प्रति, जो - खण्डित एवं मपूर्ण जान पड़ती है, ३० मार्च ४३ में
३. कीर्त्या महत्या भुविवर्द्धमानं र
त्वां वर्तमान स्तुतिगोचरत्वम् । श्रद्धेय पं० जुगलकिशोर जी मुख्तार से प्राप्त हुई थी,
निनीषवः स्मो वयमद्य वीरं उसीसे इन पद्योंको हमने अपनी नोटबुक में लिखा था। विशीर्णदोषाशयपाशबन्धम् ॥ २. देवागम का. ६, ७; वीर सेवा मन्दिर ट्रस्ट-प्रकाशन, ४. प्रद्यस्मिन् काले परीक्षावसान समये। वाराणसी।
-युक्त्य० टी० पृ०१।