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ग्वालियर के काष्ठासंयी कुछ भट्टारक
के दलने वाले और गरुड के समान (इंद्रियजयी) थे। थे, जो अनुपम गुणो के घारक, समितियों से युक्त, कर्मकाष्ठा संघ की गुर्वावली में उन्हें अमित गुणों का निवास, बन्धादि से भय-भीत, तथा चन्द्रकिरण के समान शीतल कर्मपाश के खण्डक, समय के ज्ञायक निर्दोष, संसार की विमलसेन हमे सुख प्रदान करें। जो भव्यजनो के चित्त शंका के नाशक, मदन कदन (युद्ध) के विनाशक, धर्मतीर्थ को मानन्द प्रदान करने वाले, विमलमति । मलसग के के नेता वे देवसेन गणी जयवंत रहें। ऐसा प्रकट किया विनाशक, अनुपम गृणमंदिर, ऐसे ऋषि पुगव विमलसेन है। इससे स्पष्ट है कि प्रस्तुत देवसेन अपने समय के बड़े थे। इस गुणानुवाद से ज्ञात होता है कि भट्टारक विमलविद्वान थे। इसीसे उनके यश का खुला गान किया गया सेन विद्वान, तपस्वी, द्विविधसंग के त्यागी और प्रतिष्ठाहै। इनका समय विक्रम की १४वी शताब्दी संभव है। चार्य थे। इनके द्वारा प्रतिष्ठित धातु की एक पद्मासन
दूसरे देवसेन वे हैं जिनका उल्लेख व कुण्ड (चडोभ) चौबीसी मूर्ति सं० १४१४ की प्रतिष्ठित जयपुर के मानस्तम्भ के नीचे दो पंक्तियों वाले लेख मे पाया (राजस्थान) क पाटा
(राजस्थान) के पाटौदी मन्दिर में विराजमान है। और जाता है, उसमें देवसेन की भग्नमूर्ति भी अंकित है।
दूसरी प्रतिष्ठित प्रादिनाथकी एक मूर्ति दिल्लीकै नयामन्दिर "संवत् ११५२ वैशाखसुदि पंचम्याम्
धर्मपुरा में विद्यमान है जो सवत् १४२८ में किसी जयसश्री काष्ठासंघे श्रीदेवसेन पादुका युगलम् ।
वाल सज्जन के द्वारा प्रतिष्ठित कराई गई थी। इनकी प्रस्तुत देवसेन किसके शिष्य थे, और इन्होंने क्या- ३. तास पट्टि णिरुवम गुण मन्दिरु, क्या कार्य किये है यह अभी कुछ ज्ञात नहीं हो सका। णिच्चुभवजणचित्ताणदिरु । इनका समय विक्रम की १२वीं शताब्दी का मध्यकाल है। विमलमई फैडिय-मल-सगमु, यह किसके शिष्य थे और इनकी गुरु परम्परा क्या है विमलसेणु णामे रिसि पुगमु ।। यह कुछ ज्ञात नहीं हो सका । क्योंकि इनके साथ काष्ठा
-सम्मइ जिनचरिउ प्रशस्ति संघ का उल्लेख है। इसलिए यह जानना आवश्यक है ४. सं० १४१४ वैशाख सुदि १५ गुरौ श्री काप्ठासघे यह किसके शिष्य थे।
माथुरान्वये भट्टारक श्री देवसेन तत्प? प्रतिष्ठाचार्य विमलसेन-यह देवसेन गणी के पट्टधर एवं शिष्य
श्री विमलसेन देवा अग्रोतकान्वये गगं गोत्र......
साह गोकल भार्या लिरदा पुत्र कुघरा भार्या गयसिरि १. मिच्छत्त-तिमिर हरणाई सुहायरु,
पत्र देवराज भार्या......। पाटौदी मन्दिर जयपुर प्रायमत्थहरु तव-णिलउ । णामेण पयदु जणि देवसेणु गणि,
सवत् १४२८ वर्षे जेष्ठ सुदि १२ द्वादश्या सोम
वासरे काष्ठासघे माथुरान्वये भट्टारक देवसेन देवा सजायउ चिरु वुह-तिलउ ।। -सम्मइ जिन चरिउ प्रशस्ति
स्तत्पट्ट त्रयोदशचारित्ररत्नालंकृता सकलविमल इदिय-भुअंग णिद्दलण-वेणु। पद्मपुराण प्रशस्ति ।
मुनिमडलीशिष्यशिखामणयः प्रतिष्ठाचार्य श्री२. विज्ञानसारी जिनयज्ञकारी,
भट्टारक विमलसेनदेवाः तेषामुपदेशेन जाइसवालान्वये तत्त्वार्थ वेदी वर सषभेदी ।
सा० वूइपति भार्या मदना पुत्र विजयदेव पत्नी पूजा स्वकर्मभंगी वुघयूथसंगी,
द्वितीय पुत्र लालसिंह तत्पुत्र विजयदेव तत्पुत्र समस्तचिरं क्षिती नंदतु देवसेनः ।।
दातुधुरीण साधु श्री भोज भार्या ईसरी पुत्र हम्मीरअमितगुणनिवासः खंडिता कर्मपाशः,
देवः द्वितीय भार्या कर्षी करपूरा पुत्र शुभराज समयविदकलंकः क्षीणसंसार-शंकः ।
कोल्हाको हम्मीर देवा मार्या धर्मश्री तत्पुत्र धर्मसिंह मदन-कदनहंता धर्मतीर्थस्य नेता,
एतेषां स्व श्रेयोऽर्थ शिव तत्पत्र: प्रादिनाथ नेमिचन्द्राजयति महतिलीन: शासने देवसेनः ।।
भ्यां प्रतिष्ठतम् ।। -काष्ठासंघ मा० गुर्वावली
नया मन्दिर धर्मपुरा दिल्ली वेदी १ कटनी २