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आत्म-सम्बोधन
कविवर दौलतराम १६वी २०वी शताब्दी के प्रमुख विद्वान और कवि थे। वे सस्कृत-प्राकृत भाषा के साथ अध्यात्म ग्रन्थों के अच्छे अभ्यासी थे । उनकी दृष्टि बाह्य कामो मे नही लगती थी वे अन्तप्टि की ओर अग्रसर रहते थे। सिद्धान्त-ग्रथो के दोहन से निष्पन्न प्रात्मरस से ओत-प्रोत रहते थे। उनकी दृष्टि में जगत का वैभव ऐश्वर्य और भोगविलास की रमणीय वस्तुएं जिन्हे रागीजन अपनी समझ उनमे रति करते है। कविवर उनसे सदा विमुख रहते थे, उन्हे राग-रग मे रहना असह्य हो उठता। उनके जीवन की एक महत्वपूर्ण घटना है कि मथुरा के प्रसिद्ध सेठ मनीराम जी पडितजी को जब हाथरस से मथुरा ले गये और अपने सजे हुए मकान में उन्हे बड़े प्रेम एव प्राग्रह से ठहराया। पर उन्हे मखमली गद्दों और झाड फानूसो और चाँदी सोने की कुसियो से अलकृत भवन में रहना दुष्कर हो गया। यद्यपि उन गधो पर सीतल पाटी बिछाकर बैठे हुए थे। फिर भी उनके चित्त मे 'मै अनत जीवो के पिण्ड' पर बैठा हुमा हूँ यह विकल्प मन मे शान्ति एव स्थिरता नहीं आने देता था। जी चाहता था कि मै यहाँ से अभी चला जाऊँ। पर उन्हे सेठ जी के प्रत्याग्रह से ३-४ दिन गुजारने ही पड़े। जब वे वहाँ से लश्कर चले गये। तब उनके मन मे शान्ति आई । कवि का मन अध्यात्म रस से छकाछक भरा हुआ था। पर द्रव्यों से उनका राग नहीं था, और न उनसे द्वेष ही रखते थे। किन्तु परद्रव्यो से अपनी स्वामित्व बुद्धि का परित्याग करना श्रेयस्कर समझते थे। भोगो को भुजग के समान जानकर उनसे रति करना दुःख का कारण मानते थे। वे अपनी आत्मा को समझाते हुए कहते थे कि'मान ले या सिख मोरी, झुके मत भोगन ओरी-' इससे उनकी अन्तरपरिणति का सहज ही आभास हो जाता है। इससे स्पष्ट है कि वे सदा आत्महित का लक्ष्य रखते थे। वे नीचे पद्य में अपने को सम्बोधन करते हुए कहते है किजगत के सब द्वन्दो को मिटाकर जिन पागम से प्रीति करनी चाहिए। उसी की प्रतीति करनी भी आवश्यक है। जगत के सब द्वन्द बध कर और प्रसार है । वे तेरी कुछ भी गरज को नहीं सारते । कमला चपला है। यौवन इन्द्र धनुष के समान अस्थिर है स्वजन पथिकजनो के समान है । इनसे तू वृथा रति क्यो जोडता है । विषय कषाय दोनो ही भवों में दुखद है । इनसे तू स्नेह की डोरी तोड , तेरी बुद्धि बडी भोली है तू पर द्रव्यो को अपनावत को क्यों नहीं छोड़ता। जब देवो की सागरो की स्थिति वीन जाती है तब मनुष्य पर्याय की तो स्थिति अल्प ही है । हे दौलतराम ! अब तुम शुभ अवसर पाकर चूक गये तो सागर में गिरी हुई मणि के समान पुन. नरभव मिलना कठिन है।
और सबै जग द्वन्द मिटावो, लौ लावो जिन आगम अोरी ।।टेक।। है असार जग द्वन्द्व बन्धकर, ये कछ गरज न सारत तोरी। कमला चपला यौवन सुरधनु, स्वजन पथिक जन क्यों रति जोरो॥१ विषय-कपाय दुखद दोनों भव, इन ते तोर नेह की डोरी। पर द्रव्यन को तू अपनावत, क्यों न तजे ऐसी बुधि भारी २ बीत जाय सागर थिति सुर की, नर परजायतनी अति थोरी। अवसर पाय दौल' अव चूको, फिर न मिलै मनि सागर बोरो ।।३