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अनेकान्त
__ वह काव्य इस प्रकार है :--
सज्जन साथै वात करीने, मुक्यो तांतन जिन समरीने। सुमरु सारदा देवी माय, राहनीस सुरनर सेवे पाय ।
सागर दत्त जातें ॥१६॥ प्रापे वचन विशाल ॥१॥ काचे तातें जिनवर वेठा, लेह कता लोक ते दीठा। लाड देस दीसे अभिराम, नयर डभोइ सुबर ठाम ।
हलवा फूल समान ॥१७॥ जहां छे लोडन पास ॥२॥ बाहेर पधरावी बेसाडयो, जय जय जिन सह कोने जहाया। मावे संघ मली मनरंगे, नर नारो वांवे सह सगे।
प्राप्या उलट दान ॥१८॥ माना जो तां है। हरष न माये, वचन रूप कह नवी जाये। जयजयकार करे मन हरणे, जिन अपरि कुसुमांजलि वरखें।
चील अचंभो भाये ॥१९॥ स्तवन करे बहु छंदे ॥४॥ नाना विघ्न वाजीभ बजाडे, पागल थी खेल नचाई। गायें गोत मनोहर सादें, पच सवद बादे वर नावे ।
माननी मंगल गायें ॥२०॥ नाचे नारी वृन्द ॥॥
पर पान्या अधिक दीवाज्या साथे, वनजारे लीधी जिन हाथे ।
आन्या वाल मय प्रतिमा वीस्नात्, जानें देस विदेसे वात ।
रम्य डभोई गाम ॥२१॥ सोहे सीस फणोंद ॥६॥ रूड दोन मूरत जोई ने, वारु पूजा नमन करीने। सागरबत्त हतो बनजारो, पाले नेम भले एक सारो।
पधराव्या जिन धाम ॥२२॥ जीन वांदी जम वानो ॥७॥ नाम धरू ते लाडन पास पंचम काले पूरे पास । एक समे वाटे उतरयो, जम वा वेल जीन सांभले ।
वांका विघ्न निवारे ॥२३॥ सच करे प्रतीमानो नामे चीरन डे नही वाटे, उज्जड अटवी शरmi
दरियो पार उतारें ॥२४॥ वालनी प्रतिमा पालेषी, वांदी पूजीने मन हरषी।।
ते पघरावी कूप ॥६॥
है भूत पिशाच तणो भय टाले, चेडा चेटक मंत्र न चालें।
भूत त्यारे ते बालूनी मूरत, जल माहे भइ सुंदर सूरत ।
___डांकिनी दूरे त्रासे ।।२।। अंग अनूपम रूप ॥१०॥
व्यंतर वापानी भइ जाए, जेह नामे विषधर न विषाये । बनजारो ते प्राव्यो वेहले, वलतो लभ घनो एक लख्यो।
वाघ न पावे पास ॥२६॥ उत्तरीयो तेने ठाम ॥११॥ भव भवनी भाव भंजे, रन माहे वैरी न विगंजे । सागरदत्त करे सुविचार, वाटे कुसल न लागो वार ।
रोग न प्रावे अंगे ॥२७॥ जह ने नामे नाहासे सोक, संकट सघल थाये कोक । ते स्वामी ने नामें ॥१२॥ राते स्वप्न हवु ते त्यारे, केम नाषी हूँ कृप मझारे ।
लक्ष्मी रहे निति संगे ॥२८॥ काठ तीहां मडने ॥१३॥
नाम जपंतां न रहे पाप, जनम मरन टाले संताप । तुंकाचे तांतन पर बेसाडे, का नही हूँ लागु भारे ।
आये मुगती निवास ॥२६॥ ज नर समरे लेडन नाम, ते पाये मन वांचित काम। वचन कहूँछु तुमने ॥१४॥ बनजारो जाग्यो वेहल कसु, उठयो उल्लथ घरयो मनसु ।
कुमुदचन्द्र कहे भास ॥३०॥ गयो तोहां परभाते ॥१॥ इति प्रतरिक्ष पाश्वनाथ विनती समाप्त ॥
'प्रत्येक व्यक्ति का कर्तव्य है कि वह अपने प्राचार विचार को पवित्र रक्खे। प्राचार विचारों की पवित्रता जीवन की प्रान्तरिक पवित्रता पर प्रभाव डालती है, उससे जीवन मादर्श और समुन्नत बनता है। -अज्ञात