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वर्ष २२ किरण २
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श्रोम् अर्हम्
अनेकान्त
परमागमस्य बीजं निषिद्धजात्यन्ध सिन्धुर विधानम् । सकलनयविलसितानां विरोधमयनं नमाम्यनेकान्तम् ॥
वीर- सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज, दिल्ली-६ वीर निर्वाण सवत् २४६५, वि० सं० २०२६
अर्हत परमेष्ठी स्तवन
रागो यस्य न विद्यते क्वचिदपि प्रध्वस्तसंगग्रहात् प्रस्त्रादेः परिवर्जनान्न च बुधैर्देषोऽपि संभाव्यते । तस्मात्साम्यमथात्मबोधनमतो जातः क्षयः कर्मरणामानन्दादि गुणाश्रयस्तु नियतं सोऽर्हन्सदा पातु वः ॥३॥ मुनि श्री पद्मनन्दि
{ जून
10:1
सन् १६६६
अर्थ - जिस प्ररहंत परमेष्ठी के परिग्रहरूपी पिशाच से रहित हो जाने के कारण किसी भी इन्द्रिय विषय राग नही है, त्रिशूल आदि आयुधों से रहित होने के कारण उक्त अरहंत परमेष्ठी के विद्वानों के द्वारा द्वेष की भी सम्भावना नहीं की जा सकती है । इसीलिए राग-द्वेष से रहित हो जाने के कारण उनके समताभाव प्राविर्भूत हुआ है । अतएव कर्मों के क्षय से जो श्रर्हत् परमेष्ठी अनन्त सुख प्रादि गुणो के श्राश्रय को प्राप्त हुए है वे अर्हत परमेष्ठी सर्वदा आप लोगों की रक्षा करे ।।