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जैन समाज को कुछ उपजातियाँ
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है । यह स्थान हिसार जिले में है। अग्रोहा एक प्राचीन इसका प्राचीनतम उल्लेख मौलाना दाऊदकृत अवधी काव्य ऐतिहासिक नगर था । यहाँ के एक साठ फुट ऊचे टीले की चन्द्रामन (रचना काल सन् १३७६ ई०) में हुआ है। खुदाई सन् १९३६-४० मे हुई थी। उसमे प्राचीन नगर 'वामन खतरी' वंसह गुवारा, गहरवार और अग्गरवारा।' के अवशेष और प्राचीन सिक्कों आदि का एक ढेर प्राप्त डा० परमेश्वरीलाल का उक्त निष्कर्ष ठीक नही हुआ था। २६ फुट से नीचे पाहत मुद्रा का नमूना, ४ मालूम होता, क्योंकि अग्रवाल वंश का सूचक 'अयरवाल' यूनानी सिक्के और ११ चौखूटे ताँबे के सिक्के भी मिले शब्द अपभ्रशभाषा के १२वी से १७वीं शताब्दी तक के है। तांबे के सिक्कों मे सामने की ओर 'वृषभ' और पीछे ग्रन्थो में उल्लिखित मिला है। वि० सं० ११८६ (सन् की अोर सिंह या चैत्यवृक्ष की मूर्ति है। सिक्कों के पीछे ११३२ ई०) मे दिल्ली के तोमरवशी शासक अनंगपाल ब्राह्मी अक्षरों मे-'अगोद के अगच जनपदस' शिलालेख तृतीय के राज्य काल में रचित 'पासणाह चरिउ की आदि भी अकित है जिसका अर्थ अनोदक मे अगच जनपद का अन्त प्रशस्ति मे अयरवाल शब्द का प्रयोग हुमा है, यह सिक्का होता है। अग्रोहे का नाम अग्रोदक भी रहा है। कवि स्वय अग्रवाल कुल मे उत्पन्न हुआ था। उसने अपने उक्त सिक्कों पर अकित वृषभ, सिंह या चैत्य वृक्ष की मूर्ति लिये-'सिरि अयरवाल कुल सम्भवेण, जणणी वील्हा जैन मान्यता की ओर सकेत करती है। (देखो एपिग्राफि गब्मब्भवेण' का प्रयोग किया है। कवि स्वय हरियाणा प्रदेश का इडिकाजिल्द २ पृ० २४४ और इण्डियन एण्टी क्वेरी का निवासी था वहा से यमुना नदी को पार कर वह भा०१५ पृ० ३४३ पर अग्रांतक वैश्यों का वर्णन दिया दिल्ली में पाया था। उस समय के राजा अनंगपाल तृतीय हुआ है।
के मन्त्री सिरि नट्टलसाहू अग्रवाल थे । थे । जिन्हे कवि ने अग्रोहा मे अग्रसेन नाम का एक क्षत्रिय राजा था, सिरि अयरवाल कुल कमल, 'मित्त, सुहधम्म-कम्म उसी की सन्तान परम्परा अग्रवाल कहलाते है । अग्रवाल पवियण्य-वित्तु ।' रूप में उल्लिखित किया है। इन शब्द के अनेक अर्थ है किन्तु यहाँ उनकी विवक्षा नही प्रमाणो से स्पष्ट है कि अग्रवाल शब्द का व्यवहार है। यहा अग्रदेश के रहने वाले अर्थ ही विविक्षत है। विक्रम की १२वी शताब्दी में प्रचलित था, और अग्रवालों के १८ गोत्र बतलाये जाते है, जिनमे गर्ग, उनके पूर्वज १२वी शताब्दी से पूर्ववर्ती रहे है । उस समय गोयल, मित्तल, जिन्दल और सिंहल प्रादि नाम प्रसिद्ध है। दिल्ली म अग्रवाल जैन और वैष्णव दोनो का निवास था । इनमे दो धर्मों के मानने वाले पाये जाते है। जैन अग्रवाल कई अग्रवाल अब आर्य समाजी भी है। निवास की दृष्टि और वैष्णव अग्रवाल । श्री लोहाचार्य के उपदेश से जो से मारवाड़ मारवाडी कहे जाते है। किन्तु रक्त शुद्धि जैन धर्म में दीक्षित हो गये थे, वै जैन अग्रवाल कहलाये आदि के कारण किसी समय वीसा और दस्सा भेदो में -~-उनके आचार-विचार सभी जैन धर्ममूलक है। शेप विभक्त देखे जाते है। अब मेद वाली बात नगण्य हो गई वैष्णव अग्रवाल । दोनो मे रोटी-बेटी व्यवहार होता है। है। और सब एक रूप में देखे जाने लगे है। ये लोग रीति-रिवाजों में भी कुछ समानता होते हुए भी अपने- धर्मज्ञ, प्राचारनिष्ठ, अहिसक, जन धन से सम्पन्न राज्यअपने धर्मपरक प्रवृत्ति पाई जाती है। हां वे सभी अहिंमा मान रहे है। इनकी वृत्ति शासन की ओर रही है। धर्म के मानने वाले है। उपजातियो का इतिहास १०वी तोमरवंशी राजा अनंगपाल तृतीय के राज्य श्रेष्ठी और शताब्दी से पूर्व का नहीं मिलता, पर हो सकता है कि आमात्य अग्रवाल कुलावतश साहू नट्टल ने दिल्ली में उनमे कुछ उपजातिया पूर्ववर्ती रही हो। अग्रवाल जैन ग्रादिनाथ का विशाल सुन्दरतम् मन्दिर बनवाया था परम्परा के उल्लेख १२वी शताब्दी से पूर्व के मेरे अव- जिसका उल्लेख उसी समय के कवि श्रीधर द्वारा रचित लोकन में नही आये।
पार्श्वपुराण प्रशस्ति में उपलब्ध होता है । डा. परमेश्वरीलाल ने लिखा है कि 'अग्रवाल संवत् १३६३ में साहू वाघु अग्रवाल ने मुहम्मद शाह नामका उल्लेख १४वी शताब्दी से पहले नही मिलता है। १.देखो, अग्रवाल जाति का इतिहास पृ० ६१ ।