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XV
अनेकान्त
वृत्त ज्ञात नहीं हो सका और न इसके ग्रंथकर्ता विद्वान कवियों का ही परिचय ज्ञात हो सका। मूर्ति लेख भी मेरे अवलोकन मे नहीं प्राया । एक सिद्धयंत्र का लेख प्रवश्य मिला है। जो स० १६८८ है उसमे गोल सिंघार गोत्र का स्पष्ट उल्लेख पाया जाता है जिससे यह स्पष्ट जाना जाता है कि इस उपजाति में भी गोत्रो की मान्यता है। संभवतः लम्बकल्क, गोलारादाग्थय घोर गोल सिंगारान्यय ये तीनों नाम गोलालारीय जाति के अभिसूचक है। किसी समय ये तीनो एक रूप में रहे होंगे। पर अलग-अलग कब और कैसे हुए, इसके जानने का भी कोई साधन प्राप्त नही है । इसलिए इसके सम्बन्ध मे विशेष विचार करना संभव नहीं है । वह यत्रलेख इस प्रकार है :
रगा
" सं० १६८८ वर्षे प्रापाठ वंदी ८ श्री मूलस बलात्कार गणे सरस्वती गच्छे कुंदकुंदाम्नाये भ० श्री शीलभूषण देवास्तत्पट्टे भ० श्री ज्ञानभूषणदेवास्त भ० श्री जगत्भूषणदेवास्तदास्नायें गोल सिगारान्वये गोत्रे साहू श्री लालू तस्य भार्या जिना तयो पुत्र कुवेरसी भार्या चढा तयोः पुत्राः चत्वारि ज्येष्ट पुत्र धरमदास द्वितीय पुत्र दामोदर तृतीय पुत्र भगवान [ दास ] चतुर्थ जमधरदास भार्या अर्जुना एतंयामध्ये धरमदास दशलक्षणी व्रत उद्यापनार्थं यंत्र प्रतिष्ठाकारापित शुभ भवतु । जैन सि० भा० भा० २ किरण ३ पृ० १८ जैसवाल यदु यादव, जायव, जायम ये मध्द एक ही जैसवाल नामक क्षत्रिय जाति के सूचक है । यदु कुल एक प्रस्थात एवं ऐतिहासिक कुल है। यदुकुल का हो अपभ्रंश जायव या जायस बन गया है। यह एक प्रसिद्ध क्षत्रिय वंश है। इसी पावन कुल में जैनियो के बाईसवें तीर्थकर नेमिनाथ और श्रीकृष्ण का जन्म हुआ था जो कृष्ण के चचेरे भाई थे। इस कुल में जैनधर्म के धारक अनेक राजा राजश्रेष्ठी, महामात्य और राज्यमान महापुरुष हुए है। यह क्षत्रिय कुल भी वैदयकुल मे परिवर्तित हो गया है ।
वि० सं० १९४५ में कच्छप वंशी महाराज विक्रमसिंह के राज्यकाल मे मुनि विजयकीति के उपदेश से जैसवाल वंशी पाहड, सूर्पट, देवधर और महीचन्द्र यादि
चतुर श्रावको ने ७५० फीट लम्बे और ४०० वर्ग फीट चौडे अडाकार क्षेत्र में विशाल मंदिर का निर्माण कराया था और उसके पूजन, सरक्षण एवं जीर्णोद्धार आदि के लिए उक्त कच्छपवशी विक्रमसिंह ने भूमिदान दिया
था ।
वि०स० १११० मे जैसवाल बधी साहू नेमिचन्द ने कवि श्रीधर अग्रवाल से 'वर्धमान चरित' की रचना कराई थी। जैसवाल कवि माणिक्यराज ने 'अमरसेन चरित' और नागकुमारचरित की रचना की थी।
सोमरवशी राजा वीरमदेव के महामात्य जैसवाल वंशी कुशराज ने ग्वालियर मे चन्द्रप्रभ का मन्दिर बन वाया था और पद्मनाम कायस्थ से भ० गुणकीर्ति के प्रदेश से 'यशोधर चरित' अपरनाम दयासुन्दर विधान काव्य की रचना कराई थी। और सवत् १४७५ में थापा सुदी ५ के दिन ग्वालियर के राजा वीरमदेव के राज्य काल में कुशराज ने एक यंत्र को प्रतिष्ठित किया था, जो अब नरवर के मन्दिर मे विराजमान हैं।
१.
२.
कविवर लक्ष्मण ने जो जैसवाल कुन मे उत्पन्न हुधा
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४.
See Epigraphica Indka Vol || P. 227-240 एयारह एहि पर विगह, सवच्छ सय वहि समेपहि जे पढम पक्ख पंचमि दिणे, सूरुवारे गयणगणि ठिइयणे ॥
वर्धमानचरित प्रशस्ति २. देखो, जंनग्रंथ प्रस्ति संग्रह भा० २० ४७, ६१ दोनों ग्रंथो का रचनाकाल कृम से १५७६ और १५७९ है ।
स० [१४७५ भाषाढ़ मुदि १ गोपाद्रिममा राजाधिराज श्री वीरमेन्द्रराज्ये श्री कर्षतां जनैः संघीन्द्र वंशे [ साधु भुल्लन भार्या पितामही] पुत्र जैनपाल भा० [ लोणा देवी ] तयो पुत्रः परमश्रावकः साधु कुशराजो भूत । भार्या [तिस्त्रा ] रल्हो, लक्षण श्रो, कौशीरा तयो तत्पु कल्याणमात्र भूत भायें धर्म श्री जयम्मि दे इत्यादि परिवारेण समे शाह कुशराजा यंत्र प्रणमति । नरबर जैन मन्दिर