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जैन समाज की कुछ उपजातियाँ
परमानन्द जैन शास्त्री
उपजातिया कब और कैसे बनीं, इसका कोई प्रामा- चरित की रचना की थी। यह धर्कट वश दिल्ली के पासणिक इतिवृत्त अभी तक भी नही लिखा गया। पर ग्राम- पास नही रहा जान पडता । यह राजपूताने और गुजरात नगरों या व्यवसाय के नाम पर अनेक उपजातियों का प्रादि मे रहा है। वर्तमान में इस जाति का अस्तित्व ही नामकरण और गोत्रों यादि का निर्माण किया गया है। नहीं जान पडता । सहलवाल, गगेरवाल, गर्गराट, आदि दसवीं शताब्दी से पूर्व उपजातियों का कोई इतिवृत्त नहीं अनेक उपजातिया ऐसी है जिनका परिचय नहीं मिलता। मिलता। सम्भव ह उमम पूर्व भा उनका अस्तित्व रहा कविवर विनोदीलाल ने लिखा है कि एक बार उप हो। जैन समाज मे चौरासी उपजातिया प्रसिद्ध है। ,
द है। जातियो का समुह गिरिनार जी में नेमिप्रभु की फूलमाल अठारहवीं शताब्दी के विद्वान प. विनोदीलाल अग्रवाल
प्रवाल लेने के लिए इकट्ठा हुआ और परस्पर मे यह होड लगी
के की 'फलमाला पच्चीसी' एक पच्चीस पद्यात्मक रचना है। कि प्रभ को जयमाल पहले मै लू । दूसरा कहता था कि जिसमे अग्रवाल, खण्डेलवाल, बघेरवाल, गोलापूर्व, परवार,
पहले मै लू । और तीसरा भी चाहता था कि फलमाल (पौर पट्ट) प्रादि जातियो का नामाकन किया गया है।
मुझे मिले। इस होड में सभी उपजातियाँ अपने वैभव के ग्राम नगरादि के नाम पर अनेक उपजातिया बनी।
__ अनुसार बोली छुड़ाने के लिए तैयार थी । फलमान लेने प्रोसा से प्रोसवाल, वघेरा से वधेरवाल । पालि से पल्ली
की जिज्ञासा ने जन-साधारण मे अपूर्व जागृति की लहर वाल, मेवाड से मेवाडा । इस तरह ग्राम एव नगरो तथा
उत्पन्न कर दी। और एक से एक बढकर फूलमाल का कार्यों आदि से उपजातियों और गोत्रों आदि का निर्माण
मुल्य देने के लिये तय्यार हो गया। पर उन सबमे से हुपा है। अनेक उपजातियों के उल्लेख मूर्ति लेखो और
किसी एक को ही फूलमाल मिली। यह रचना विक्रम की ग्रथ प्रशस्तियों आदि में उपलब्ध होते है। पर उनका
१८वी शताब्दी के मध्य काल की है । यद्यपि १६वी शताब्दी अस्तित्व अब वर्तमान मे नही मिलता । जैसे धक्कड़ या
के विद्वान ब्रह्म नेमिदत्त ने भी फूलमाल जयमाला का धर्कट । यह एक प्रसिद्ध ऐतिहासिक जाति है जिसकी वश
निर्माण किया है । जो सक्षिप्त सरल और सुन्दर है । जो परम्परा पूर्व काल में अच्छी प्रतिष्ठित रही है। इसमे
सज्जन इस महधिक फूलमाल को अपनी लक्ष्मी देकर लेते अनेक प्रतिष्ठित विद्वान हुए है । इसका निकास 'उजपुर'
है उनके सब दुख दूर हो जाते है। सिरोंज (टोंक) से बतलाया गया है। "इह मेवाड़ देसे ।
इस लेख मे कुछ उपजातियों का सक्षिप्त परिचय जण सकुले, सिरि उजपुर निग्गयधक्कड कुले ।" धर्म
दिया जा रहा है। जिन जातियों का नामादि के अतिरिक्त परीक्षा के कर्ता हरिषेण (१०४४) भी इसी धर्कट वशीय ।
कुछ परिचय भी नहीं मिला, उन्हें छोड दिया गया है। गोवर्द्धन के पुत्र और सिद्धसेन के शिप्य थे। यह चित्तौड़
अग्रवाल-यह शब्द एक क्षत्रिय जाति का सूचक के निवासी थे और कार्यवश अचलपुर चले गए थे और
है। जिसका निकास अग्रोहा या 'अग्रोदक' जनपद से हुआ वहाँ पर उन्होंने स० १०४४ मे धर्म परीक्षा का निर्माण किया था। मालव देश की समृद्ध नगरी सिन्धुवर्षी में भी १. भो भवियण जिण-पय-कमल, माल महग्घिय लेहु । धर्कट वश के तिलक मधुसूदन श्रेष्ठी के पुत्र तक्खडु और णिय लच्छि फल करिकरहु, दुक्ख जलजलु देहु ।। भरत थे, जिनकी प्रेरणा से वीर कवि ने जम्बू स्वामी
माला रोहिणी