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'सम्मत्तगुणरिणहाण' कव्व को प्रशस्ति के मालोक में :
गोपाचल-दुर्गके एक मूर्तिलेखका अध्ययन
प्रो. डा. राजाम जैन गोपाचल का मध्यकालीन इतिहास वस्तुतः तत्कालीन स्त्री सरसुती पुत्र मल्लिदास द्वितीय भार्या साध्वी सरा पुत्र जैन अग्रवालों की सभ्यता एवं संस्कृति का इतिहास है। चन्द्रपाल । क्षेमसी पुत्र द्वितीया साधु श्री भोजराजा भायो विक्रम की १४वीं सदी के प्रारम्भ से १६वीं सदी तक का देवस्य पुत्र पूर्णपाल । एतेषां मध्ये श्री। त्यादि जिनसमय गोपाचल का स्वर्ण काल कहा जा सकता है और संघाधिपति 'काला' सदा प्रणमति ।। उसके मूल में जैन अग्रवाल ही प्रमुख रहे है। तोमरवशी उक्त लेखमें मोटे टाइपके पद विचारणीय है । यह तो राजापो को उन्होंने अपने पाचरण, बुद्धि-कौशल, चतुराई, सर्वविदित ही है कि गोपाचल (ग्वालियर) काष्ठासंघ साहस, कुशल सूझ-बूझ, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक अभि- माथुरगच्छ की पुष्करगण शाखा के अनुयायी भट्टारकों रुचि, साहित्यकारों के प्रति महान प्रास्था एवं कलाप्रेम का सुप्रसिद्ध केन्द्र रहा है। वहाँ के सभी जैन अग्रवालों प्रादि से प्रभावित कर उन्होंने महाकवि रइघु के शब्दो मे के वे ही परम्परा गुरु एवं समाजनेता रहे है । महाकवि गोपाचल को 'श्रेष्ठ तीर्थ' बना दिया था। यहाँ पर उक्त रइध ने भी उस परम्परा के भट्टारकों को अपना गुरु माना सभी तथ्यों पर प्रकाश डालने का प्रसग नहीं है; क्योकि है। रइघ भगवान मादिनाथ के परम भक्त थे इसके अनेक उन पर विस्तृत रूप में अन्यत्र प्रकाश डाला जा चुका है। प्रमाण उपलब्ध है। कविता के क्षेत्र में अधिक लोकप्रियता यहाँ गोपाचल का एक मूर्ति लेख ही चर्चनीय प्रसग है
का एक मूात लख हा चचनाय प्रसग ह प्राप्त करने के बाद राजा डूगरसिंह ने जब उन्हें अपने दुर्ग जिसका अध्ययन एवं अनुवाद प्रादि किन्हीं कारोवश में रहकर साहित्य
में रहकर साहित्य साधना करने हेतु मामन्त्रित किया तब भ्रमपूर्ण होता रहा है किन्तु महाकवि रइधू की एक प्रशस्ति रइध ने उसे स्वीकार तो अवश्य कर लिया किन्तु भ. से उसका पूर्णतया संशोधन एवं स्पष्टीणरण हो जाता है। आदिनाथ के दर्शन बिना उनका मन नहीं लगता था । पठित मूर्ति लेख निम्न प्रकार है:
अतः उनके बाल-सखा एवं शिष्य साहू कमलसिंह संघवी, श्री प्रादिनाथाय नमः ।। संवत् १४६७ वर्षे वैशाख...
जो कि मुद्गलगोत्रीय जैन अग्रवाल थे, तवा राजा डूगर७ शुके पुनर्वसुनक्षत्रे श्री गोपाचल दुर्गे' महाराजाधिराज सिंह के अत्यन्त विश्वस्त पात्र एवं समृद्ध नगर सेठ थे, राज श्री डग... संवर्तमानो श्री काञ्चीसघे, मायू उन्होंने कवि की इच्छापूर्ति हेतु गोपाचल दुर्ग में ५७ फीट रान्वयो पुष्करगण भट्टारक श्री गणकीर्तिदेव तत्पदे
ऊंची प्रादिनाथ भगवान की विशाल जिन प्रतिमा का यत्यः कीर्तिदेवा प्रतिष्ठाचार्य श्री पण्डित रघू तेपं निर्माण कराया था और उनकी प्रतिष्ठा स्वयं महाकवि प्राभाए अनोतवंशे मोद्गलगोत्रा सा ॥ धुरात्मा तस्य । रइधू ने की थी'। रइधू विरचित 'सम्मत्तगुणणिहाणकव्व' पुत्रः साधु भोपा तस्या भार्या नाल्ही। पुत्र प्रथम साघु नामक ग्रन्थ-प्रशस्ति से उक्त घटना बिल्कुल स्पष्ट हो क्षेमसी द्वितीय साधु महाराजा तृतीय असराज चतुर्थ धन- जाती है। प्रशस्ति का पद्यांश निम्न प्रकार है :पाल पञ्चम साधु पाल्का । साधु क्षेमसी भार्या नोरादेवी
२. जैन शिला लेख संग्रह (स्मारिका सीरीज) तृ० भा०, पुत्र ज्येष्ठ पुत्र मघायि पति 'कोल'॥ भ--भार्या च ज्येष्ठ
भूमिका, पृ. १५३ । १. जैन लेख संग्रह (द्वितीय भाग, पूरनचन्द्र नाहर, कल- ३. सम्मत० १११३ तथा जैन ग्रन्थ प्रशस्ति संग्रह द्वि. कत्ता, १९२७ ई.) लेखक १४२७ ।
भा० (सम्पादक पं० परमानन्द जी शास्त्री) पृ.८६ ।