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द्वितीय जम्बूद्वीप
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मुख्य सिंहासन की पूर्व दिशा में विजय देव की छह अनु- प्रशोक प्रासाद :पम अग्रदेवियाँ रहती है। उन्के सिंहासन रमणीय है। प्रत्येक चैत्यवक्ष की ईशान दिशा मे इकतीस योजन इनमे से प्रत्येक अग्रदेवी की परिवारदेवियर्या तीन हजार है एक कोश विस्तार वाला दिव्य प्रासाद स्थित है । रंगजिनकी आयु एक पल्य से अधिक होती हैं। ये परिवार
बिरंग मणियों से निर्मित स्तम्भों वाले इस प्रासाद की देवियाँ भी अपने अपने भवनों में रहती है। विजय देव
ऊँचाई साढ़े बासठ योजन और प्रवगाह दो कोश है । की बाह्मपरिषद् मे बारह हजार देव है । उनके सिहासन
उसके द्वार का विस्तार चार योजन और ऊंचाई पाठ स्वामी के सिंहासन के नैऋत्य मे है । उसकी मध्यम परिषद् । में दस हजार देव होते है जिनके सिंहासन स्वामी के
यह प्रासाद देदीप्यमान रत्नदीपको से प्रकाशित रहता सिंहासन के दक्षिण में स्थित होते है। उसकी अभ्यन्तर
है, विचित्र शय्याओं और प्रासनों से परिपूर्ण रहता है परिषर पे जो पाठ हजार देव रहते है, उनके सिहासन
और उसमे उपलब्ध शब्द, रम, रूप, गध एव स्पर्श से स्वामी के सिहासन के आग्नेय मे स्थित है। सात सेना
देवों के मन आनन्द में भर उठते है । स्वर्गमय भित्तियो महत्तरो के उत्तम सुवर्ण एवं रत्नो से रचित दिव्य सिहा
पर अकित विचित्र चित्रों से उसका स्वरूप निखर उठा सन मुख्य सिंहासन के पश्चिम में होते है। विजय देव के
है। बहुत कहने से क्या, वह प्रासाद अनुपम है । उस जो अठारह हजार शरीर रक्षक देव है, उन सभी के चन्द्र
प्रासाद मे उतम रत्नमुकुट को धारण करने वाला और पीठ चारी दिशाग्रो में स्थित है। वहाँ अनेक देव विविध
चामर-छत्रादि से सुशोभित अशोक नामक देव हजारो प्रकार के नत्य सगीत प्रादि द्वारा विजय का मनोरजन
देवियों के माथ आनन्द से रहता है। करते है । राजागण के बाहर परिवार देवो के, फहराती हुई ध्वजा-पताकानो से मनोहर और उत्तम रत्नो की
शेप वैजयन्त आदि तीन देवो का सम्पूर्ण वर्णन ज्योति से अत्यन्त रमणीय प्रामाद है। जो बहुत प्रकार
विजयदेव के ही समान है । इनके भी नगर क्रमशः दक्षिण की रति के करने में कुशल है, नित्य यौवन से युक्त है,
पश्चिम और उत्तर दिशा में स्थित है। नाना प्रकार की विक्रिया को करती है, माया एव लोभादि मननीय :- . से रहित है, हास-विलास में निपुण है, और स्वभाव से ही
जैसा कि टिप्पणी ७ में कहा जा चुका है, यह लेख प्रेम करने वाली है ऐसी समस्त देवियाँ विजय देव की सेवा
मुख्य रूप से तिलोयपण्णत्ती पर आधारित है। यह ई० करती है। अपने नगरो के रहने वाले अन्य सभी देव
४७३ से ६०६ के मध्य की रचना मानी गई है।" विनय से परिपूर्ण और अतिशय भक्ति में प्रासक्त होकर
भारतीय इतिहास में यह काल स्वर्णयुग के नाम से निरंतर विजय देव की सेवा करते है।
विख्यात है। इस तथ्य की पुष्टि तिलोयपण्णत्ती के पाराबन और चैत्यक्ष :
यण से शतशः होती है। उस नगरी से बाहर पचीस योजन की दूरी पर चार उसने स्थान-स्थान पर उल्लिखित विभिन्न प्रकार वन हैं। उनमें से प्रत्येक मे चैत्यवृक्ष हैं। अशोक और की नगर योजनाएँ और भवनों की विन्यास रेखाएं (ने सप्तपर्ण, चम्पक और आम्रवृक्षों के ये वन पूर्वादि दिशाओं प्राउट प्लान) संस्कृति और पुरातत्त्व के लिए अत्यन्त में प्रदक्षिणाक्रम से है । प्रत्येक वन बारह सौ योजन लम्बा महत्वपूर्ण सामग्री प्रस्तुत करती है । और पांच सौ योजन चौड़ा है। इन वनों में जो चैत्यवृक्ष नगरियाँ योजनो लम्बी-चौड़ी होती थी जैन मन्दिर है उनकी सख्या भावनलोक के चैत्यवृक्षों की संख्या के और उपवन उनमें अवश्य होते थे। प्राकारो और गोपुगें बराबर है। उनकी चारों दिशाओं में चार जिनेन्द्र प्रति- की अनिवार्यता थी। भवन और प्राकार न केवल ऊचे माएं हैं जो देवों और असुरों द्वारा पूजित, प्रातिहार्यों से होते थे, उनकी नीव भी काफी गहरी (अवगाह) खादी अलंकृत, पमासन में स्थित और रत्ननिर्मित हैं।
जाती थी। राजागण एक विशाल, सर्वसुविधासपन्न,