Book Title: Agam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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[जीवाजीवाभिगमसूत्र
शंका की जा सकती है कि श्रुत-सिद्धान्त प्रकृति-सुन्दर है तो क्यों नहीं सभी को दिया जाता है? इसका समाधान है कि अयोग्य व्यक्तियों के प्रकृति से ही असुन्दर होने से अनर्थों की संभावना रहती है। प्रायः देखा जाता है कि पात्र को असुन्दरता के कारण प्रकृति से सुन्दर सूर्य की किरणें उलूकादि के लिए अनर्थकारी ही होती हैं। कहा है कि जो जिसके लिए हित के रूप में परिणत हो उसी का प्रयोग किया जाना चाहिए। मछली के लिए कांटे में लगा गल आहार होने पर भी अनर्थ के लिए ही होता है। २
जिणपसर्थ-यह जिनमत योग्य एवं पात्र व्यक्तियों के लिए कल्याणकारी है। यहाँ भी 'जिन' शब्द का अर्थ हितमार्ग में प्रवृत्ति करने वाले और अहितमार्ग से विमुख रहने वाले जनों के लिए प्रयुक्त हुआ है। जैसे नीरोग के लिए पथ्याहार भविष्य में होने वाले रोगों को रोकने वाला होने से हितावह होता है, इसी तरह यह जिनमत हितमार्ग में प्रवृत्त और अहितमार्ग से निवृत्त जनों के लिए हितावह है। इसका सम्यग् रूप से आसेवन करने से यह जिनमत कल्याणकारी और हितावह सिद्ध होता है।
उक्त विशेषणों से विशिष्ट 'जिनमत' को औत्पत्तिकी आदि बुद्धियों द्वारा सम्यक् पर्यालोचन करके, उस पर श्रद्धा, प्रतीति एवं रुचि रखने वाले स्थविर भगवंतो ने 'जीवाजीवभिगम' इस सार्थक नाम वाले अध्ययन का प्ररूपण किया। यद्यपि काल-दोष से बुद्धि आदि गुणों का ह्रास हो रहा है, फिर भी यह समझना चाहिए कि जिनमत का थोड़ा भी ज्ञान एवं आसेवन भव का छेदन करने वाला है। ऐसा मानकर कोमल चित्त से जिनमत पर श्रद्धा रखनी चाहिए।
स्थविर भगवंतों से अभिप्राय उन आचार्यो से है जिनका ज्ञान और चारित्र परिपक्व हो चुका है। धर्मपरिणति से जिनकी मति का असमंजस दूर है और श्रुतरूपी ऐश्वर्य के योग से जिन्होनें कषायों को भग्न कर दिया है।
इस प्रकार प्रस्तुत सूत्र में गुरुपर्वक्रमलक्षण सम्बन्ध और अभिधेय आदि का कथन किया गया है। स्वरूप और प्रकार
२. से किं तं जीवाजीवाभिगमे ? जीवाजीवाभिगमे दुविहे पण्णत्ते, तं जहाजीवाभिगमे य अजीवाभिगमे य। [२] जीवाजीवाभिगम क्या है ? जीवाजीवाभिगम दो प्रकार का कहा गया है, वह इस प्रकार-१. जीवाभिगम और २. अजीवाभिगम । ३.से किं तं अजीवाभिगमे? अजीवाभिगमे विहे पण्णत्ते
पउंजियव्वं धीरेण हियं जं जस्स सब्वहा। आहारो विहु मच्छस्स न पसत्थो गलो भुवि॥