Book Title: Agam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 415
________________ [जीवाजीवाभिगमसूत्र पट्ट चांदी का है, इन ध्वजाओं के दण्ड वज्ररत्न के हैं, इनकी गन्ध कमल के समान है, अतएव ये सुरम्य हैं, सुन्दर हैं, प्रासादिक हैं, दर्शनीय हैं, अभिरूप हैं एवं प्रतिरूप हैं। ३६६ ] इन तोरणों के ऊपर एक छत्र के ऊपर दूसरा छत्र, दूसरे पर तीसरा छत्र - इस तरह अनेक छत्र हैं, एक पताका पर दूसरी पताका, दूसरी पर तीसरी पताका - इस तरह अनेक पताकाएँ हैं । इन तोरणों पर अनेक घंटायुगल हैं, अनेक चामरयुगल हैं और अनेक उत्पलहस्तक ( कमलों के समूह ) हैं यावत् शतपत्र - सहस्रपत्र कमलों के समूह हैं। ये सर्वरत्नमय हैं, स्वच्छ हैं यावत् प्रतिरूप ( बहुत सुन्दर ) हैं । १२७. (३) तासिं णं खुडियाणं वावीणं जाव बिलपंतियाणं तत्थ तत्थ देसे तर्हि तहिं बहवे उप्पायपव्वयाणियइपव्वया जगतिपव्वया दारुपव्वयगा दगमंडवगा दगमंचका दगमालका दगपासायगा ऊसढा खुल्ला खडहडगा आंदोलगा पक्खंदोलगा सव्वरयणामया अच्छा जाव पाडवा | तेसु णं उप्पायपव्वसु जाव पक्खंदोलएसु बहवे हंसासणाई कोंचासणाई गरुलासणाई उण्णयासणाइं पणयासणाई दीहासणाई भद्दासणाई पक्खासणाइम मगरासणाई उसभासणाई सीहासणाइ पउमासणाई दिसासोवत्थियासणाइं सव्वरयणामयाइं अच्छाई सण्हाई लण्हाई घट्टाई मट्ठाई णीरयाई णिम्मलाई निप्पंकाई निक्कंकडच्छायाइं सप्पभाई समिरीयाई, सउज्जोयाइं पासादीयाइं दरिसणिज्जाइं अभिरूवाइं पडिरूवाइं । [१२७] (३) उन छोटी बावड़ियों यावत् कूपपंक्तियों में उन-उन स्थानों में उन-उन भागों में बहुत से उत्पातपर्वत हैं, (जहाँ व्यन्तर देव - देवियां आकर क्रीडानिमित्त उत्तरवैक्रिय की रचना करते हैं), बहुत से नियतिपर्वत हैं (जो वानव्यंतर देव-देवियों के नियतरूप से भोगने में आते हैं) जगतीपर्वत हैं, दारुपर्वत हैं। (जो लकड़ी के बने हुए जैसे लगते हैं), स्फटिक के मण्डप हैं, स्फटिकरत्न के मंच हैं, स्फटिक के माले हैं, स्फटिक के महल हैं, जो कोई तो ऊंचे हैं, कोई छोटे हैं, कितनेक छोटे किन्तु लंबे हैं, वहाँ बहुत से आंदोलक (झूले) हैं, पक्षियों के आन्दोलक (झूले) हैं। ये सर्वरत्नमय हैं, स्वच्छ हैं, यावत् प्रतिरूप हैं । उन उत्पातपर्वतों में यावत् पक्षियों के आन्दोलकों (झूलों) में बहुत से हंसासन (जिस आसन के नीचे भाग में हंस का चित्र हो ), क्रोंचासन, गरुड़ासन, उन्नतासन, प्रणतासन, दीर्घासन, भद्रासन, पक्ष्यासन, मकरासन, वृषभासन, सिंहासन, पद्मासन, और दिशास्वस्तिकासन हैं । ये सब सर्वरत्नमय हैं, स्वच्छ हैं, मृदु हैं, स्निग्ध हैं, घृष्ट हैं, नीरज हैं, निर्मल हैं, निष्पंक हैं, अप्रतिहत कान्ति वाले हैं, प्रभामय हैं, किरणों वाले हैं, उद्योत वाले हैं, प्रासादिक हैं, दर्शनीय हैं, अभिरूप हैं और प्रतिरूप हैं । १२७. ( ४ ) तस्स णं वणसंडस्स तत्थ तत्थ देसे तहिं तर्हि बहवे आलिघरा मालिघरा कयलिघरा लयागरा अच्छणघरा पेच्छणघरा मज्जणघरगा पसाहणघरगा गब्भघरगा मोहणघरगा सालघरगा जालघरगा कुसुमघरगा चित्तघरगा गंधव्वघरगा आयंसघरगा सव्वरयणामया अच्छा सहा जाव पडिरूवा ।

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