Book Title: Agam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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तृतीय प्रतिपत्ति: जम्बूद्वीप के द्वारों की संख्या ]
१३३. विजयस्स णं दारस्स उवरिमागारा सोलसविहेहिं रयणेहिं उनसोभिता, तं जहारयणेहिं वेरुलिएहिं जाव रिट्ठेहिं । विजयस्स णं दारस्स उप्पिं बहवे अट्ठट्ठमंगलगा पण्णत्ता, तं जहा- सोत्थिय - सिरिवच्छ जाव दप्पणा सव्वरयणामया अच्छा जाव पडिरूवा । विजयस्स णं दारस्स उप्पिं बहवे कण्हचामरज्झया जाव सव्वरयणामया अच्छा जाव पडिरूवा। विजयस्स णं दारस्स उप्पिं बहवे छत्ताइछत्ता तहेव ।
[३८३
[१३३] उस विजयद्वार का ऊपरी आकार (उत्तरांगादि) सोलह प्रकार के रत्नों से उपशोभित है। जैसे वज्ररत्र, वैडूर्यरल, यावत् रिष्टरत्न । ' उस विजयद्वार पर बहुत से आठ-आठ मंगल - स्वस्तिक, श्रीवत्स यावत् दर्पण कहे गये हैं। ये सर्वरत्नमय स्वच्छ यावत् प्रतिरूप हैं ।
उस विजयद्वार के ऊपर बहुत से कृष्ण चामर के चिह्न से अंकित ध्वजाएँ हैं । यावत् वे ध्वजाएँ सर्वरत्नमय, स्वच्छ यावत् प्रतिरूप हैं। उस विजयद्वार के ऊपर बहुत से छत्रातिछत्र कहे गये हैं । इन सबका वर्णन पूर्ववत् जानना चाहिए ।
१३४. से केणट्टेणं भंते ! एवं वुच्चइ विजए णं दारे विजए णं दारे ?
गोयमा ! विजए णं दारे विजए णाम देवे महिड्ढीए महज्जुईए जाव महाणुभावे पलिओवमट्ठिए परिवसति । से णं तत्थ चउण्हं सामाणियसाहस्सीणं, चउण्हं अग्गमहिसीणं सपरिवाराणं, तिण्हं परिसाणं, सत्तण्हं आणियाणं सत्तण्हं आणियाहिवईणं, सोलसण्हं आयरक्खदेवसाहस्सीणं, विजयस्स णं दारस्स विजयाए रायहाणीए, अण्णेसिं च बहूणं विजयाए रायहाणीए वत्थव्वगाणं देवाणं देवीण य आहेवच्चं जाव दिव्वाइं भोगभोगाई भुंजमाणे विहरइ । सेट्टे गोयमा ! एवं वुच्चइ - विजएदारे विजएदारे ।
अदुत्तरं च णं गोयमा ! विजयस्स णं दारस्स सासए णामधेज्जे पण्णत्ते जं ण कयाइणासी, ण कया णत्थि, ण कयावि ण भविस्सइ जाव अवट्ठिए णिच्चे विजयदारे ।
[१३४] हे भगवन् ! विजयद्वार को विजयद्वार क्यों कहा जाता हैं ?
गौतम ! विजयद्वार में विजय नाम का महर्द्धिक, महाद्युति वाला यावत् महान् प्रभाव वाला और एक पल्योपम की स्थिति वाला देव रहता है। वह चार हजार सामानिक देवों, चार सपरिवार अग्रमहिषियों, तीन पर्षदाओं, सात अनीकों (सेनाओं ), सात अनीकाधिपतियों और सोलह हजार आत्मरक्षक देवों का, विजयद्वार का, विजय राजधानी का और अन्य बहुत सारे विजय राजधानी के निवासी देवों और देवियों का आधिपत्य करता हुआ यावत् दिव्य २ भोगोपभोगों को भोगता हुआ विचरता है। इस कारण हे गौतम ! विजयद्वार को विजयद्वार कहा जाता है ।
१. सोलह रत्नों के नाम- १. रत्न- सामान्य कर्केतनादि, २. वज्र, ३. वैडूर्य, ४. लोहिताक्ष, ५. मसारगल्ल, ६. हंसगर्भ, ७. पुलक, ८. सौगंधिक, ९. ज्योतिरस, १० अंक, ११. अंजन, १२. रजत, १३. जातरूप, १४. अंजनपुलक, १५. स्फटिक, १६. रिष्ट । २. भोगभोगाई अर्थात् भोग योग्य शब्दादि भोगों को ।