Book Title: Agam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________
४१०]
[जीवाजीवाभिगमसूत्र
मिट्टी ग्रहण करते हैं। इनके बाद वे मेरुपर्वत के भद्रशालवन में आते हैं। वहां के सर्व ऋतुओं के फूल यावत् सर्वोषधि और सिद्धार्थक ग्रहण करते हैं । वहाँ से नन्दनवन में आते हैं, वहाँ के सब ऋतुओं के श्रेष्ठ फूल यावत् सर्वोषधियाँ और सिद्धार्थक तथा सरस गोशीर्ष चन्दन ग्रहण करते हैं। वहाँ से सौमनसवन में आते हैं और सब ऋतुओं के फूल यावत् सौषधियाँ, सिद्धार्थक और सरस गोशीर्ष चन्दन तथा दिव्य फूलों की मालाएँ ग्रहण करते हैं। वहाँ से पण्डकवन में आते हैं और सब ऋतुओं के फूल, सर्वौषधियाँ, सिद्धार्थक, सरस गोशीर्ष चन्दन, दिव्य फूलों की माला और कपडछन्न किया हुआ मलय-चन्दन का चूर्ण आदि सुगन्धित द्रव्यों को ग्रहण करते हैं। तदनन्तर सब आभियोगिक देव एकत्रित होकर जम्बूद्वीप के पूर्वदिशा के द्वार से निकलते हैं और उस उत्कृष्ट यावत् दिव्य तेजगति से चलते हुए तिरछी दिशा में असंख्यात द्वीप-समुद्रों के मध्य होते हुए विजया राजधानी में आते हैं। विजया राजधानी की प्रदक्षिणा करते हुए अभिषेकसभा में विजयदेव के पास आते हैं और हाथ जोड़कर, मस्तक पर अंजलि लगाकर जय-विजय के शब्दों से उसे बधाते हैं। वे महार्थ, महार्घ और महार्ह विपुल अभिषेक सामग्री को उपस्थित करते हैं ।
१४१.[४] तते णं तं विजयदेवं चत्तारि य सामाणियसाहस्सीओ चत्तारि अग्गमहिसीओ सपरिवाराओ तिणि परिसाओ सत्त अणीया सत्त अणीयाहिवई सोलस आयरक्खदेवसाहस्सीओ अन्ने य बहवे विजयारायहाणिवत्थव्वगा वाणमंतरा देवा य देवीओ य तेहिं साभाविएहिँ उत्तरवेउव्विएहिं य वरकमलपइट्ठाणेहिं सुरभिवरवारिपडिपुण्णेहिं चंदणकयचच्चाएहिं आविद्धकंठगुणेहिं पउमुप्पलपिधाणेहिं करतलसुकुमालकोमलपरिग्गहिएहिं अट्ठसहस्साणं सोवणियाणं कलसाणं रुप्पमयाणं जाव अट्ठसहस्साणं भोमेजाणं कलसाणं सव्वोदएहिं सव्वमट्टियाहिँ सव्वतुवरेहिं सव्वपुफेहिं जाव सव्वोसहिसिद्धत्थएहिं सविडीए सव्वजईए सव्वबलेणं सव्वसमुदएणं सव्वायरेणं सव्वविभूईए सव्वविभूयाए सव्वसंभमेणं (सव्वारोहेणं सव्वणाडएहिं) सव्वपुप्फगंधमल्लालंकारविभूसाए सव्वदिव्वतुडियणिणाएणं महया इड्डीए महया जुईए महया बलेणं महया समुदएणं महया तुरिय-जमगसमगपडुप्पवाइतरवेणं संख-पणव-पडह-भेरी-झल्लरिखरमुहि-हुडुक्क-मुरज-मुयंग-दुंदुहि निग्योससन्निनाइयरवेणं महया महया इंदाभिसेगेणं अभिसिंचंति।
[१४१] (४) तदनन्तर चार हजार सामानिक देव, सपरिवार चार अग्रमहिषियाँ, तीन पर्षदाओं के (यथाक्रम आठ हजार, दश हजार और बारह हजार) देव, सात अनीक, सात अनीकाधिपति, सोलह हजार आत्मरक्षक देव और अन्य बहुत से विजया राजधानी के निवासी देव-देवियाँ उन स्वाभाविक और उत्तरवैक्रिय से निर्मित श्रेष्ठ कमल के आधार वाले, सुगन्धित श्रेष्ठ जल से भरे, चन्दन से चर्चित, गलों में मौलि बंधे हुए, पद्मकमल के ढक्कन वाले, सुकुमार और मृदु करतलों में परिगृहीत एक हजार आठ सोने के, एक हजार आठ चाँदी के यावत् एक हजार आठ मिट्टी के कलशों के सर्वजल से, सर्व मिट्टी से, सर्व ऋतु के श्रेष्ठ सर्व पुष्पों से यावत् सौषधि और सरसों से सम्पूर्ण परिवारादि ऋद्धि के साथ, सम्पूर्ण द्युति के साथ, सम्पूर्ण हस्ती आदि सेना के साथ, सम्पूर्ण आभियोग्य समुदय (परिवार) के साथ, समस्त आदर से, समस्त विभूति
१. 'सव्वारोहेण सव्णाडएहिं' पाठ वृत्ति में नहीं है।