Book Title: Agam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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तृतीय प्रतिपत्ति: जंबूद्वीप क्यों कहलाता हैं ? ]
नीलवंतद्रह नीलवंतद्रह कहा जाता है ।
(इसके पश्चात् वृत्ति के अनुसार नीलवंतकुमार की नीलवंता राजधानी विषयक सूत्र हैं। उसका कथन विजया राजधानी की तरह कल लेना चाहिए ।)
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काञ्चन पर्वतों का अधिकार
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१५०. नीलवंतद्दहस्स णं पुरत्थिम-पच्चत्थिमेणं दस जोयणाइं अबाहाए एत्थ णं दस दस कंचणगपव्वया पण्णत्ता । ते णं कंचणगपव्वया एगमेगं जोयणसयं उड्डुं उच्चत्तेणं, पणवीसं पणवीसं पण्णासं जोयणाइं उव्वेहेणं, मूले एगमेगं जोयणसयं विक्खंभेणं मज्झे पण्णत्तरि जोयणाई विक्खंभेणं उवरिंपण्णास जोयणाइं विक्खंभेणं मूले तिण्णि सोलसे जोयणसए किंचि विसेसाहिए परिक्खेवेणं, मज्झे दोन्नि सत्ततीसे जोयणसए किंचि विसेसाहिए परिक्खेवेणं, उवरिं एगं अट्ठावण्णं जोयणसयं किंचि विसेसाहिए परिक्खेवेणं; मूले विच्छिण्णा, मज्झे संखित्ता उप्पि तणुया गोपुच्छसंठाणसंठिया सव्वकंचणमया, अच्छा, पत्तेयं पत्तेयं पउमवरवेइयापरिक्खित्ता पत्तेयं पत्तेयं वणसंडपरिक्खित्ता ।
तेसिं णं कंचणगपव्वयाणं उप्पिं बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे जाव आसयंति० । तेसिं णं कंचणगपव्वयाणं पत्तेयं पत्तेयं पासायवडेंसगा सड्ढ बावट्ठि जोयणाई उड्डुं उच्चत्तेणं इक्कतीसं जोयणाई कोसं च विक्खंभेणं मणिपेढिया दो जोयणिया सीहासणं सपरिवारं ।
सेकेणणं भंते ! एवं वुच्चइ - कंचणगपव्वया कंचणगपव्वया ?
गोयमा ! कंचणगेसु णं पव्वएसु तत्थ तत्थ वावीसु उप्पलाई जाव कंचणगवण्णाभाई कंचणगा जाव देवा महिड्डिया जाव विहरंति । उत्तरेणं कंचणगाणं कंचणियाओ रायहाणीओ अण्णम्मि जंबुद्दीवे तहेव सव्वं भाणियव्वं ।
कहिं णं भंते ! उत्तराए कुराए उत्तरकुरुद्दहे पण्णत्ते ?
गोयमा ! नीलवंतद्दहस्स दाहिणेणं अट्ठचोत्तीसे जोयणसए एवं सो चेव गमो णेयव्वो जो णीलवंतद्दहस्स सव्वेसिं सरिसगो दहसरि स नामा य देवा, सव्वेसिं पुरत्थिम-पच्चत्थिमेणं कंचणगपव्वया दस दस एकप्पमाणा उत्तरेणं रायहाणीओ अण्णम्मि जंबुद्दीवे ।
कहिं णं भंते ! चंदद्दहे एरावणद्दहे मालवंतद्दहे एवं एक्केक्को णेयव्वो ।
[१५०] नीलवंतद्रह के पूर्व-पश्चिम में दस योजन आगे जाने पर दस दस काञ्चनपर्वत कहे गये है । (ये दक्षिण और उत्तर श्रेणी में व्यवस्थित हैं ) । ये कांचन पर्वत एक सौ एक सौ योजन ऊँचे, पच्चीस पच्चीस योजन भूमि में, मूल में एक-एक सौ योजन चौड़े, मध्य में पचहत्तर योजन चौड़े और ऊपर पचासपचास योजन चौड़े हैं। इनकी परिधि मूल में तीन सौ सोलह योजन से कुछ अधिक, मध्य में दो सौ सैंतीस योजन से कुछ अधिक और ऊपर एक सौ अट्ठावन योजन से कुछ अधिक है । ये मूल में विस्तीर्ण, मध्य
उपलब्ध प्रतियों में राजधानी विषयक पाठ छूटा हुआ लगता है। वृत्ति के अनुसार राजधानी विषयक पाठ होना चाहिए ।
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