Book Title: Agam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 457
________________ [जीवाजीवाभिगमसूत्र ४०८ ] उवागच्छंति, उवागच्छित्ता सलिलोदगं गेण्हंति, गेण्हित्ता उभओ तडमट्टियं गिण्हंति गेण्हित्ता जेणेव सद्दावातिमालवंतपरियागा वट्टवेतढपव्वया तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता सव्वतूवरे य जाव सव्वोसहिसिद्धत्थए य गेण्हंति, गेण्हित्ता जेणेव महाहिमवंत - रुप्पिवासधरपव्वया तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता सव्वतुवरे य तं चेव जेणेव महापउमद्दह - महापुंडरीयद्दहा तेणेव उवागच्छंति, तेणेव उवागच्छित्ता जाई तत्थ उप्पलाइं तं चेव, तेणेव हरिवासे रम्मावासे त्ति जेणेव हरकंत-हरिकंत णरकंत-नारिकंताओ सलिलाओ तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता सलिलोदगं गेहंति, गेण्हित्ता जेणेव वियडावइ-गंधावइ वट्टवेयड्ढपव्वया तेणेव उवागच्छंति सव्वपुप्फे य तं चेव जेणेव णिसह - नीलवंत वासहरपव्वया तेणेव उवागच्छंति, सव्वतुवरे य तहेव जेणेव तिगिच्छिदहकेसरिद्दहा तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता जाई तत्थ उप्पालाई तं चेव, जेणेव पुव्वविदेहावरविदेहवासाइं जेणेव सीया- सीयोदाओ महाणईओ जहा णईओ, जेणेव सव्वचक्कवाट्टिविजया जेणेव सव्वमागह- वरदामपभासाइं तित्थाइं तहेव, जेणेव सव्ववक्खारपव्वया सव्वतुवरे य, जेणेव सव्वंतरणदीओ सलिलोदगं गेण्हांत तं चेव । जेणेव मंदरे पव्वए जेणेव भद्दासालवणे तेणेव उवागच्छंति, सव्वतुवरे जाव सव्वोसहिसिद्धत्थए गेहंति, गेण्हित्ता जेणेव णंदणवणे तेणेव उवागच्छंति, सव्वतुवरे जाव सव्वोसहिसिद्धत्थए य सरसं गोसीसचंदणं गिण्हंति, गिण्हित्ता जेणेव सोमणसवणे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता सव्वतुवरे य जाव सव्वोसहिसिद्धत्थए य सरसगोसीसचंदणं दिव्वं य सुमणदामं गेण्हंति, गेण्हित्ता जेणेव पंडगवणे तेणामेव समुवागच्छंति समुवागच्छित्ता सव्वतुवरे जाव सव्वोसहिसिद्धत्थए सरसं य गोसीसचंदणं दिव्वं ये सुमणोदामं दद्दरयमलयसुगंधिए य गंधे गेण्हंति, गेण्हित्ता एगओ मिलंति, मिलित्ता जंबूद्दीवस्स पुरत्थिमिल्लेणं दारेणं णिग्गच्छंति, निग्गच्छित्ता ताए उक्किट्ठाए जाव दिव्वाए देवगईए तिरियमसंखेज्जाणं दीवसमुद्दाणं मज्झं-मज्झेणं वीयीवयमाणा वीड्वयमाणा जेणेव विजया रायहाणी तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता विजयं रायहाणिं अणुप्पयाहिणं करेमाणा करेमाणा जेणेव अभिसेयसभा जेणेव विजए देवे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कट्टु जएणं विजएणं वद्धावेंति; विजयस्स देवस्स तं महत्थं महग्घं महरिहं विउलं अभिसेयं उवट्टवेंति । [१४१] (३) तदनन्तर उस विजयदेव की सामानिक पर्षदा के देवों ने अपने आभियोगिक (सेवक) देवों को बुलाया और कहा हे देवानुप्रियो ! शीघ्र ही विजयदेव के महार्थ (जिसमें बहुत रत्नादिक धन का उपयोग हो), महार्घ (महापूजा योग्य), महार्ष ( महोत्सव योग्य) और विपुल इन्द्राभिषेक की तैयारी करो । तब वे आभियोगिक देव सामानिक पर्षदा के देवों द्वारा ऐसा कहे जाने पर हृष्ट-तुष्ट हुए यावत् उनका हृदय विकसित हुआ । हाथ जोड़कर मस्तक पर अंजलि लगाकर 'देव ! आपकी आज्ञा प्रमाण है' ऐसा कहकर विनयपूर्वक उन्होंने उस आज्ञा को स्वीकार किया। वे उत्तरपूर्व दिशाभाग में जाते हैं, वैक्रिय-समुद्घात से समवहत होकर संख्यात योजन का दण्ड निकालते हैं (अर्थात् आत्मप्रदेशों को शरीरप्रमाण बाहल्य में संख्यात योजन तक ऊँचे-नीचे दण्डाकृति में शरीर से बाहर निकालते हैं - फैलाते हैं) रत्नों से यावत् रिष्टरत्नों के

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