Book Title: Agam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 436
________________ तृतीय प्रतिपत्ति: जम्बूद्वीप के द्वारों की संख्या ] एक हजार अस्सी ध्वजाएँ मैंने और अन्य तीर्थंकरों ने कही हैं। ध्वजासूत्र के बाद भौम कहने चाहिए । भौमों के भूमिभाग और उल्लोकों (भीतरी छतों) का वर्णन पूर्ववत् जानना चाहिए। उन भौमों के ठीक मध्यभाग में नवमे - नवमे भौम के मध्यभाग में विजयदेव के योग्य सिंहासन हैं जैसे कि विजयद्वार के पांचवें भौम में हैं किन्तु सपरिवार सिंहासन कहने चाहिए। शेष भौमों में सपरिवार भद्रासन कहने चाहिए। उन द्वारों का ऊपरी आकार सोलह प्रकार के रत्नों से उपशोभित है। सोलह रत्नों के नाम पूर्व में कहे जा चुके हैं । यावत् उन पर छत्र पर छत्र लगे हुए हैं। इस प्रकार सब मिलाकर (विजय) राजधानी के पांच सौ द्वार कहे गये हैं । [३८७ १३६. [ १ ] विजयाए णं रायहाणीए चउद्दिसिं पंचपंचजोयणसयाई अबाहाए, एत्थ णं चत्तारि वणसंडा पण्णत्ता, तं जहा - असोगवणे सत्तिवण्णवणे चंपकवणे चूयवणे । पुरत्थिमेणं असोगवणे, दाहिणेणं सत्तिवण्णवणे, पच्चत्थिमेणं चंपगवणे उत्तरेणं चूयवणे । ते णं वणसंडा साइरेगाई दुवालसजोयणसहस्साइं आयामेणं पंचजोयणसयाइं विक्खंभेणं पण्णत्ता पत्तेयं पत्तेयं पागारपरिक्खित्ता किण्हा किण्होभासा वणसंडवण्णओ भाणियव्वो जाव बहवे वाणमंतरा देवा य देवीओ य आसयंति सयंति चिठ्ठति णिसीयंति तुयट्टंति रमंति ललंति कीलंति मोहंति पुरापोराणाणं सुचिण्णाणं सुपरक्कंताणं सुभाणं कम्माणं कडाणं कल्लाणाणं फलवित्तिविसेसं पच्चणुभवमाणा विहरति । तेसिं णं वणसंडाणं बहुमज्झदेसभाए पत्तेयं पत्तेयं पासायवडिंसगा पण्णत्ता, ते णं पासायवडिंसगा वावट्ठि जोयणाई अद्धजोयणं च उड्डुं उच्चत्तेणं, एक्कतीसं जोयणाई कोसं च आयामविक्खंभेणं अब्भुग्गयमुस्सिअ० तहेव जाव अंतो बहुसमरमणिज्जा भूमिभागा पण्णत्ता उल्लोया पउमलयाभत्तिचित्ता भाणियव्वा । तेसिं णं पासायवडिंसगाणं बहुमज्झदेसभाए पत्तेयं पत्तेयं सीहासणा पण्णत्ता वण्णावासो सपरिवारा । तेसिं णं पासायवडिंसगाणं उप्पिं बहवे अठ्ठमंगलगा झया छत्ताइछत्ता । तत्थ णं चत्तारि देवा महिड्डिया जाव पनिओवमट्ठिझ्या परिवसंति, तं जहा - असोए, सत्तिवण्णे, चंपए, चूए। तत्थ णं ते साणं साणं वणसंडाणं साणं साणं पासायवडेंसयाणं साणं साणं सामाणियाणं साणं साणं अग्गमहिसीणं साणं साणं परिसाणं साणं साणं आयरक्खदेवाणं आहेवच्चं जाव विहरंति । [१३६] (१) उस विजया राजधानी की चारों दिशाओं में पांच-पांच सौ योजन के अपान्तराल को छोड़ने के बाद चार वनखंड कहे गये हैं, यथा-१ अशोकवन, २ सप्तपर्णवन ३ चम्पकवन और ४ आम्रवन । पूर्वदिशा में अशोकवन है, दक्षिणदिशा में सप्तपर्णवन है। पश्चिम दिशा में चंपकवन है और उत्तरदिशा में आम्रवन है । वे वनखण्ड कुछ अधिक बारह हजार योजन के लम्बे और पांच सौ योजन के चौड़े हैं। प्रत्येक एक-एक प्राकार से परिवेष्ठित हैं, काले हैं, काले ही प्रतिभासित होते हैं - इत्यादि वनखंड का वर्णनक कह लेना चाहिए यावत् वहाँ बहुत से वानव्यंतर देव और देवियाँ स्थित होती हैं, सोती हैं (लेटती हैं क्योंकि

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