Book Title: Agam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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तृतीय प्रतिपत्ति विजयदेव का उपपात और उसका अभिषेक]
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के हैं यावत् रत्नों से शोभित हैं।
उस ' व्यवसायसभा के उत्तर-पूर्व में एक विशाल बलिपीठ है। वह दो योजन लम्बा-चौड़ा और एक योजन मोटा है। वह सर्वरत्नमय है, स्वच्छ है यावत् प्रतिरूप है। उस बलिपीठ के उत्तर-पूर्व में एक बड़ी नन्दापुष्करिणी कही गई है। उसका प्रमाण आदि वर्णन पूर्व वर्णित हृद के समान जानना चाहिए। विजयदेव का उपपात और उसका अभिषेक
१४१.(१) तेणं कालेणं तेणं समएणं विजए देवे विजयाए रायहाणीए उववातसभाए देवसयणिज्जंसि देवदूसंतरिए अंगुलस्सअसंखेज्जइभागमेत्तीए बोंदीए विजयदेवत्ताए उववण्णे। तए णं से विजए देवे अहुणोववण्णमेत्तए चेव समाणे पंचविहाए पज्जत्तीए पज्जत्तीभावं गच्छइ, तंजहा-आहारपजत्तीए, सरीरपज्जत्तीए, इंदियपज्जत्तीए आणापाणुपज्जत्तीए भासामणपज्जतीए। तए णं तस्स विजयस्स देवस्स पंचविहाए पज्जत्तीए पज्जत्तीभावं गयस्स इमेएयारूवे अज्झथिए चिंतिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था-किं मे पुव्वं सेयं कि मे पच्छा सेयं, किं मे पुव्वि करणिज्जं किं मे पच्छा करणिज्जं किं मे पुव्वि वा पच्छा वा हियाए सुहाए खेमाए णिस्सेसाए अणुगामियत्ताए भविस्सतीति कटु एवं संपेहेइ।
तए णं तस्स विजयदेवस्स सामाणियपरिसोववण्णगा देवा विजयस्सदेवस्स इमं एयारूवं अज्झत्थियं चिंतियं पत्थियं मणोगयं संकप्पं समुप्पणं जाणित्ता जेणामेव से विजए देवे तेणामेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता विजयं देवं करतलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कटु जएणं विजएणं वद्धति, जएणं विजएणं वद्धावित्ता एवं वयासी-एवं खलु देवणुप्पियाणं विजयाए रायहाणीए सिद्धायतणंसि अट्ठसयं जिणपडिमाणं जिणुस्सेहपमाणमेत्ताणं सन्निक्खित्तं चिट्ठइ, सभाए य सुधम्माए माणवए चेइयखंभे वइरामएसु गोलवट्टसमुग्गएसु बहूओ जिणसकहाओ सन्निक्खित्ताओ चिटुंति, जाओ णं देवाणुप्पियाणं अन्नेसि य बहूणं विजयराजहाणिवत्थव्वाणं देवाणंदेवीणय अच्चणिज्जाओवंदणिज्जाओ पूयणिज्जाओसक्कारणिज्जाओ सम्माणणिज्जाओ कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं पज्जुवासणिज्जाओ। एतं णं देवाणुप्पियाणं पुवि पि सेयं, एतं णं देवाणुप्पियाणं पच्छा वि सेयं, एयं णं देवाणुप्पियाणं पुट्विं करणिज्जं पच्छा करणिज्जं एयं णं देवाणुप्पियाणं पुट्वि वा जाव आणुगामियत्ताए भविस्सइ त्ति कटु महया महया जयजयसई पउंजंति।
__ [१४१] (१) उस काल और उस समय में विजयदेव विजया राजधानी की उपपातसभा में देवशयनीय में देवदूष्य के अन्दर अंगुल के असंख्यातवें भागप्रमाण शरीर में विजयदेव के रूप में उत्पन्न हुआ। तब वह विजयदेव उत्पत्ति के अनन्तर (उत्पन्न होते ही) पांच प्रकार की पर्याप्तियों से पूर्ण हुआ। वे पांच पर्याप्तियाँ इस प्रकार हैं-१ आहारपर्याप्ति, २ शरीरपर्याप्ति, ३ इन्द्रियपर्याप्ति, ४ आनप्राणपर्याप्ति और ५ भाषामनपर्याप्ति।
१. भाषा और मनःपर्याप्ति-एक साथ पूर्ण होने के कारण उनके एकत्व की विवक्षा की गई है।