Book Title: Agam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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[जीवाजीवाभिगमसूत्र
योगद्वार-ये मनोयोगी नहीं हैं। वचनयोगी और काययोगी हैं। उपयोगद्वार-ये जीव साकर-उपयोग वाले भी हैं और अनाकार-उपयोग वाले भी हैं।
आहारद्वार-नियम से छहों दिशाओं के पुद्गलों का आहार ये जीव करते हैं। द्वीन्द्रियादि जीव वसनाडी में ही होते हैं अतएव व्याघात का प्रश्न नहीं उठता।
उपपात-ये जीव देव, नारक और असंख्यात वर्षायु वाले तिर्यंचों-मनुष्यों को छोड़कर शेष तिर्यंचमनुष्यगति से आकर पैदा होते हैं।
स्थिति-इन जीवों की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट बारह वर्ष की है। समवहतद्वार-ये समवहत होकर भी मरते हैं और असमवहत होकर भी मरते हैं।
च्यवनद्वार-ये जीव मरकर देव, नारक और असंख्यात वर्षों की आयुवाले तिर्यंचों-मनुष्यों को छोड़कर शेष तिर्यंच मनुष्य में उत्पन्न होते हैं।
गति-आगतिद्वार-ये जीव पूर्ववत् दो गति में जाते हैं और दो गति से आते हैं।
ये जीव प्रत्येकशरीरी हैं और असंख्यात हैं। घनीकृत लोक के ऊपर-नीचे तक दीर्घ एक प्रदेश वालीश्रेणी में जितने आकाशप्रदेश हैं, उतने ये द्वीन्द्रियजीव हैं। असंख्यात का यह प्रमाण बताया गया है। क्योंकि असंख्यात भी असंख्यात प्रकार का है।
इन द्वीन्द्रिय-पर्याप्त अपर्याप्त की सात लाख जाति कुलकोडी, योनिप्रमुख होते हैं। पूर्वाचार्यों के अनुसार जातिपद से तिर्यचगति समझनी चाहिए। उसके कुल हैं-कृमि, कीट, वृश्चिक आदि। ये कुल योनिप्रमुख होते हैं अर्थात् एक ही योनि में अनेक कुल होते हैं । जैसे एक ही गोबर या कण्डे की योनि में कृमिकृत, कीट और वृश्चिककुल आदि होते हैं। इसी प्रकार एक ही योनि में अवान्तर जातिभेद होने से अनेक जातिकुल के योनि प्रवाह होते हैं। द्वीन्द्रियों के सात लाख जातिकुल कोटिरूप योनियाँ हैं।
यह द्वीन्द्रियों का वर्णन हुआ। त्रीन्द्रियों का वर्णन
२९. से किं तं तेइंदिया ? तेइंदिया अणेगविहा पण्णत्ता, तं जहाओवइया, रोहिणीया, हथिसोंडा, जे यावण्णे तहप्पगारा। ते समासओ दुविहा पण्णत्ता, तं जहापज्जत्ता य अपज्जत्ता य।
तहेवजहा बेइंदियाणंणवरं सरीरोगाहणा उक्कोसेणं तिन्नि गाउयाई,तिन्नि इंदिया,ठिई जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं एगूणपण्णासराइंदिया, सेसं तहेव दुगतिया, दुआगतिया, परित्ता असंखेज्जा पण्णत्ता, से त्तं तेइंदिया।