Book Title: Agam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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२५६ ]
[जीवाजीवाभिगमसूत्र
जत्तिया णरका।
इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए निरयपरिसामंतेसु जे पुढविकाइया जाव वणप्फइकाइया, ते णं भंते ! जीवा महाकम्मतरा चेव महाकिरियतरा चेव महाआसवतरा चेव महावेयणतरा चेव ?
___ हंता गोयमा ! इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए निरयपरिसामंतेसु तं चेव जाव महावेयणतरका चेव। एवं जाव अधेसत्तमाए।
[९३] हे भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के तीस लाख नरकावासों में से प्रत्येक में सब प्राणी सब भूत, सब जीव, और सब सत्त्व पृथ्वीकायिक रूप में अप्कायिक रूप में वायुकायिक रूप में वनस्पतिकायिक रूप में और नैरयिक रूप में पूर्व में उत्पन्न हुए हैं क्या ?
___ हाँ गौतम ! अनेक बार अथवा अनंत बार उत्पन्न हुए हैं। इस प्रकार सप्तम पृथ्वी तक कहना चाहिए। विशेषता यह है-जिस पृथ्वी में जितने नरकावास हैं उनका उल्लेख वहाँ करना चाहिए। .
भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के नरकावासों के पर्यन्तवर्ती प्रदेशों में जो पृथ्वीकायिक यावत् वनस्पतिकायिक जीव हैं, वे जीव महाकर्म वाले, महाक्रिया वाले और महाआस्रव वाले और महा वेदना वाले हैं क्या ?
हाँ, गौतम ! वे रत्नप्रभापृथ्वी के पर्यन्तवर्ती प्रदेशों के पृथ्वीकायिक यावत् वनस्पतिकायिक जीव महाकर्म वाले, महाक्रिया वाले, महाआस्रव वाले और महावेदना वाले हैं।
इसी प्रकार सप्तम पृथ्वी तक कहना चाहिए।
विवेचन-प्रस्तुत सूत्र में दो महत्त्वपूर्ण प्रश्न और उनके उत्तर हैं। पहला प्रश्न है कि भगवन् ! उक्त प्रकार के नरकावासों में सब प्राणी, सब भूत, सब जीव और सब सत्त्व पहले उत्पन्न हुए हैं क्या? भगवान् ने कहा-हाँ गौतम ! सब संसारी जीव इन नरकावासों में प्रत्येक में अनेक बार अथवा अनन्त बार पूर्व में उत्पन्न हो चुके हैं। संसार अनादिकाल से है और अनादिकाल से सब संसारी जीव जन्म-मरण करते चले आ रहे हैं। अतएव वे बहुत बार अथवा अनन्त बार इन नरकावासों में उत्पन्न हुए हैं। कहा हैं
'न सा जाई न सा जोणी जत्थ जीवो न जायइ' ऐसी कोई जाति और ऐसी कोई योनि नहीं है जहाँ इस जीव नें अनन्तबार जन्म-मरण न किया हो।
मूल पाठ में प्राण, भूत, जीव और सत्त्व शब्द आये हैं, इनका स्पष्टीकरण आचार्यों ने इस प्रकार किया है -
'द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों का ग्रहण 'प्राण' शब्द से, वनस्पति का ग्रहण 'भूत' शब्द से, पंचेन्द्रियों का ग्रहण 'जीव' शब्द से, शेष रहे पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय और वायुकाय के जीव 'सत्त्व' शब्द से गृहीत होते हैं।'
१. प्राणा द्वित्रिचतुः प्रोक्ताः भूताश्च तरवः स्मृताः।
जीवाः पंचेन्द्रिया ज्ञेयाः शेषाः सत्त्वा उदीरिताः॥