Book Title: Agam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 403
________________ ३५४ ] [जीवाजीवाभिगमसूत्र रम् - यह वनखण्ड रमणीय है । महामेहनिकुरंबभूए- - वह वनखण्ड जल से भरे हुए महामेघों के समुदाय के समान है। वनखण्ड के वृक्षों का वर्णन मूलपाठ से ही स्पष्ट है जो कोष्ठक में दिया गया है। उस वनखण्ड का भूमिभाग अत्यन्त रमणीय और समतल है । उस समतलता को बताने के लिए विविध उपमाएँ दी गई हैं। मुरज, मृदंग, सरोवर, करतल, आदर्शमण्डल, चन्द्रमण्डल, सूर्यमण्डल, उरभ्रचर्म, वृषभचर्म आदि विविध पशुओं के खींचे हुए चर्म के तल से उस भूभाग की समतलता की तुलना की गई है । उक्त पशुओं के चर्म को कीलों की सहायता से खींचने पर वह एकदम सलरहित होकर समतल - एकसरीखा तल वाला होता है, वैसा ही वह भूभाग ऊबड़-खाबड या ऊँचा-नीचा और विषम न होकर समतल है, अतएव अत्यन्त रमणीय है। इतना ही नहीं उस समतल भूमिभाग पर विविध भांति के चित्र चित्रित हैं। इन चित्रों में आवर्त, प्रत्यावर्त, श्रेणी, प्रश्रेणी, स्वस्तिक, सौवस्तिक, पुष्यमाणव, वर्द्धमानक, मत्स्यंडक, मकरंडक जारमार लक्षण वाली पांच वर्ण की मणियों से निर्मित चित्र हैं। पुष्पावली, पक्षपत्र, सागरतरंग, वासन्तीलता, पद्मलता आदि के विविध चित्र पांच वर्ण वाली मणियों और तृणों से चित्रित हैं। वे मणियां पांच रंगों की हैं, कान्तिवाली, किरणोंवाली हैं। उद्योत करने वाली हैं। अगले सूत्रखण्ड में पांच वर्णों की मणियों एवं तृणों का उपमानों द्वारा वर्णन किया गया है, वह इस प्रकार है-— १२६. [ २ ] तत्थ णं जे ते किण्हा तणा य मणि य तेसिं णं अयमेयारूवे वण्णावसे पण्णत्ते, जे जहाणामए जीमूएइ वा, अंजणेइ वा, खंजणेइ वा, कज्जलेइ वा, १ मसीइ वा, गुलिया वा, गवलेइवा, गवलगुलियाइ वा, भमरेइ वा, भमरावलियाइ वा, भमरपत्तगयसारेइ वा, जंबूफलेइ वा, अद्दारिट्ठेइ वा, परपुट्ठेइ वा, गएइ वा, गयकलभेइ वा, कण्हसप्पेड़ वा, कण्हकेसरेइ वा, आगासथिग्गलेइ वा, कण्हासोएइ वा, कण्हकणवीरेइ वा, कण्हबंधुजीवएइ वा, भवे एयारूवे सिया ? गोयमा ! णो तिणट्ठे समट्ठे । तेसिं णं कण्हाणं तणाणं मणीण य इत्तो इट्ठतराए चेव कंततराए चेव पियतराए चेव मणुण्णतराए चेव मणामतराए चेव वण्णे णं पण्णत्ते । [१२६] (२) उन तृणों और मणियों में जो काले वर्ण के तृण और मणियां हैं, उनका वर्णावास इस प्रकार कहा गया है - जैसे वर्षाकाल के प्रारम्भ में जल भरा बादल हो, सौबीर अंजन अथवा अञ्जन रत्न हो, खञ्जन (दीपमल्लि का मैल, गाड़ी का कीट) हो, काजल हो, काली स्याही हो, (घुला हुआ काजल), घुले हुए काजल की गोली हो, भैंसे का श्रृंग हो, भैंसे के श्रृंग से बनी गोली हो, भंवरा हो, भौंरों की पंक्ति हो, भंवरों के पंखों के बीच का स्थान हो, जम्बू का फल हो, गीला अरीठा हो, कोयल हो, हाथी हो, हाथी का बच्चा हो, काला सांप हो, काला बकुल हो, बादलों से मुक्त आकाशखण्ड हो, काला अशोक, काला कनेर और काला बन्धुजीव (वृक्ष) हो । हे भगवन् ! ऐसा काला वर्ण उन तृणों और मणियों का होता है क्या ? हे गौतम ! ऐसी नहीं है। इनसे भी अधिक इष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज्ञ और मनोहर उनका वर्ण होता है ।

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