Book Title: Agam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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[जीवाजीवाभिगमसूत्र
मनोज्ञ तथा नाक और मन को तृप्त करने वाली गंध निकलकर चारों तरफ फैल जाती है, हे भगवन् ! क्या वैसी गंध उन तृणों और मणियों की है ? गौतम ! यह बात यथार्थ नहीं है। इससे भी इष्टतर, कान्ततर, प्रियतर, मनोज्ञतर और मनामतर गंध उन तृणों और मणियों की कही गई है ।
१२६. ( ८ ) तेसिं णं भंते ! तणाण य मणीण य केरिसए फासे पण्णत्ते ? से जहाणामएआई इवा, रुए इवा, बूरे इ वा, णवणीए इ वा, हंसगब्भतूली इ वा, सिरीसकुसुमणिचए इवा, बालकुमुद पत्तरासी इ वा भवे एयारूवे सिया ?
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णो तिट्टे सट्टे । तेसिं णं तणाण य मणीण य एत्तो इट्ठतराए चेव जाव फासे णं
पण्णत्ते ।
[१२६] (८) हे भगवन् ! उन तृणों और मणियों का स्पर्श कैसा कहा गया है ? जैसे - आजिनक (मृदु चर्ममय वस्त्र), रुई, बूर, वनस्पति, मक्खन, हंसगर्भतूलिका, सिरीष फूलों का संग्रह, नवजात कुमुद के पत्रों की राशि का कोमल स्पर्श होता है, ऐसा उनका स्पर्श है क्या ?
गौतम ! यह अर्थ यथार्थ नहीं है। उन तृणों और मणियों का स्पर्श उनसे भी अधिक इष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज्ञ और मणाम ( मनोहर ) है ।
१२६. ( ९ ) तेसिं णं भंते !' तणाण य मणीण य पुव्वावरदाहिणउत्तरागएहिं वाएहिं मंदायं मंदायं एइयाणं वेइयाणं कंपियाणं खोभियाणं चालियाणं फंदियाणं घट्टियाणं उदीरियाणं केरिसए सद्दे पण्णत्ते ? से जहानामए - सिबियाए वा, संदमाणीयाए वा, रहवरस्स वा, सच्छत्तस्स सज्झयस्स संघटयस्स सतोरणवरस्स सणंदिघोसस्स सखिंखिणिहेमजालपेरंतपरिक्खित्तस्स हेमवयखेत्त चित्तविचित्त तिणिसकणगनिज्जुत्तदारुयागस्स सुपिणद्धारकमंडलधुरागस्स कालायससुकयणेमिजंतकम्मस्स आइण्णवरतुरगसुसंपउत्तस्स कुसलणरछेयसारहिसुसंपरिगहियस्स सरसयबत्तीसतोणपरिमंडियस्स सकंकडवडिंसगस्स सचावसरपहरणावरणभरियस्स जोहजद्धस्स रायंगणंसि वा अंतेउरंसि वा रम्मंसि मणिकोट्टिमतलंसि अभिक्खणं अभिक्खणं अभिघट्टिज्जमाणस्स वाणियट्टिज्जमाणस्स वा ओराला मणुण्णा कण्णमणणिव्वइकरा सव्वओ सता सद्दा अभिणिस्सवंति, भवे एयारूवे सिया ?
णो तिट्ठे सट्टे ।
से जहानामए - वेयालियाए वीणाए उत्तरमंदामुच्छिताए अंके सुपइट्टियाए चंदणसारकोणपडिघट्टियाए कुसलणरणारिसंपरिगहियाए पदोस-पच्चूसकालसमयंसि मंदं मंदं एइयाए वेइयाए खोभियाए उदीरियाए ओराला मणुण्णा कण्णमणणिव्वुइकरा सव्वओ समंता सद्दा अभिणिस्सर्वति, भवे यावे सिया ?
णो तिट्टे समट्ठे ।
तणाणं पुव्वा. इत्येव पाठः ।
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