Book Title: Agam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 347
________________ २९८ ] [जीवाजीवाभिगमसूत्र मन्नसमोगाढाहिं लेस्साए साए पभाए सपदेसे सव्वओ समंता ओभासेंति उज्जोवेति पभासेंति; कुसविकुसविसुद्धरुक्खमूला जाव चिटुंति॥५॥ [१११] (७) हे आयुष्मन् श्रमण ! एकोरुक द्वीप में जहाँ-तहाँ बहुत से ज्योतिशिखा (ज्योतिष्क) नाम के कल्पवृक्ष हैं। जैसे तत्काल उदित हुआ शरत्कालीन सूर्यमण्डल, गिरती हुई हजार उल्काएँ, चमकती हुई बिजली, ज्वालासहित निर्धूम प्रदीप्त अग्नि, अग्नि से शुद्ध हुआ तप्त तपनीय स्वर्ण, विकसित हुए किंशुक के फूलों, अशोकपुष्पों और जपा-पुष्पों का समूह, मणिरत्न की किरणें, श्रेष्ठ हिंगलू का समुदाय अपने-अपने वर्ण एवं आभारूप से तेजस्वी लगते हैं, वैसे ही वे ज्योतिशिखा (ज्योतिष्क) कल्पवृक्ष अपने बहुत प्रकार के अनेक परिणाम से उद्योत विधि से (प्रकाशरूप से) युक्त होते हैं। उनका प्रकाश सुखकारी है, तीक्ष्ण न होकर मंद हैं, उनका आताप तीव्र नहीं है, जैसे पर्वत के शिखर एक स्थान पर रहते हैं, वैसे ये अपने ही स्थान पर स्थिर होते हैं, एक दूसरे से मिश्रित अपने प्रकाश द्वारा ये अपने प्रदेश में रहे हुए पदार्थों को सब तरफ से प्रकाशित करते हैं, उद्योतित करते हैं, प्रभासित करते हैं। ये कल्पवृक्ष कुश-विकुश आदि से रहित मूल वाले हैं यावत् श्री से अतीव शोभायमान हैं ॥ ५॥ चित्रांग नामक कल्पवृक्ष [८] एगोरुयदीवेणं दीवे तत्थ तत्थ बहवे चित्तंगाणाम दुमगणा पण्णत्ता समणाउसो! जहा सेपेच्छाघरे विचित्ते रम्मेवरकुसुमदाममालुज्जले भासंत मुक्कपुष्फपुंजोवयारकलिए विरल्लिय विचित्तमल्लसिरिदाम मल्लसिरिसमुदयप्पगब्भेगंथिम वेढिम पूरिम संघाइमेणंमल्लेणं छेयसिप्पियं विभागरइएणंसव्वतोचेवसमणुबद्धे पविरललंबंतविप्पइटेहिं पंचवण्णेहिंकुसुमदामेहिं सोभमाणेहि सोभमाणे वणमालकयगाए चेव दिप्पमाणे, तहेव ते चित्तंगा विदुमगणाअणेग बहुविविहवीससापरिणयाए मल्लविहीए उववेया कुसविकुसविसुद्धरुक्खमूला जाव चिटुंति ॥६॥ [१११] (८) हे आयुष्मन् श्रमण ! उस एकोरुक द्वीप में यहाँ वहाँ बहुत सारे चित्रांग नाम के कल्पवृक्ष हैं। जैसे कोई प्रेक्षाघर (नाट्यशाला) नाना प्रकार के चित्रों से चित्रित, रम्य, श्रेष्ठ फूलों की मालाओं से उज्ज्वल, विकसित-प्रकाशित बिखरे हुए पुष्प-पुंजों से सुन्दर, विरल-पृथक्-पृथक्रूप से स्थापित हुई एवं विविध प्रकार की गूंथी हुई मालाओं की शोभा के प्रकर्ष से अतीव मनमोहक होता है, ग्रथित-वेष्टित-पूरित-संघातिम मालाएं जो चतुर कलाकारों द्वारा गूंथी गई हैं उन्हें बड़ी ही चतुराई के साथ सजाकर सब ओर रखी जाने से जिसका सौन्दर्य बढ़ गया है, अलग अलग रूप से दूर दूर लटकती हुई पांच वर्णों वाली फूलमालाओं से जो सजाया गया हो तथा अग्रभाग में लटकाई हुई वनमाला से जो दीप्तिमान हो रहा हो ऐसे प्रेक्षागृह के समान वे चित्रांग कल्पवृक्ष भी अनेक बहुत और विविध प्रकार के विस्रसा परिणाम से माल्यविधि (मालाओं) से युक्त हैं। वे कुश-विकुश से रहित मूल वाले यावत् श्री से अतीव सुशोभित हैं ॥६॥ चित्ररस नामक कल्पवृक्ष [९] एगोरुयदीवेणं दीवे ! तत्थ तत्थ बहवे चित्तरसा णाम दुमगणा पण्णत्ता समणाउसो!

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