Book Title: Agam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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ततीय प्रतिपत्ति: ज्योतिष्क देवों के विमानों का वर्णन]
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सूर्य की वक्तव्यता के अनुसार चन्द्र की वक्तव्यता जाननी चाहिए।
विवेचन-इस रत्नप्रभा पृथ्वी के अत्यन्त सम एवं रमणीय भूभाग से सात सौ नब्बे (७९०) योजन की ऊँचाई पर एक सौ दस योजन के बाहल्य में एवं तिरछे असंख्यात योजन में ज्योतिष्क क्षेत्र है, जहाँ ज्योतिष्क देवों के तिरछे, असंख्यात लाख ज्योतिष्क विमानावास हैं।
वे विमान आधे कबीठ के आकार के हैं और पूर्णरूप से स्फटिकमय हैं। वे सामने से चारों ओर ऊपर उठे (निकले) हुए, सभी दिशाओं में फैले हुए तथा प्रभा से श्वेत हैं। विविध मणियों, स्वर्ण और रत्नों की छटा से वे चित्र विचित्र हैं, हवा में उड़ती हुई विजय-वैजयंती, पताका, छत्र पर छत्र (अतिछत्र) से युक्त हैं। वे बहुत ऊँचे गगनतलचुंबी शिखरों वाले हैं। उनकी जालियों में रत्न जड़े हुए हैं तथा वे विमान पिंजरा (आच्छादन) हटाने पर प्रकट हुई वस्तु की तरह चमकदार हैं। वे मणियों और रत्नों की स्तूपिकाओं से युक्त हैं। उनमें शतपत्र और पुण्डरीक कमल खिले हुए हैं। तिलकों और रत्नमय अर्धचन्द्रों से वे चित्रविचित्र हैं तथा नानामणिमय मालाओं से सुशोभित हैं। वे अन्दर और बाहर से चिकने हैं। उनके प्रस्तर सोने की रुचिर बालूवाले हैं। वे सुखद स्पर्शवाले, श्री से सम्पन्न, सुरूप, प्रसन्नता पैदा करने वाले, दर्शनीय, अभिरूप (अतिरमणीय) और अतिरूप (बहुत सुन्दर) हैं।
इन विमानों में बहुत से ज्योतिष्क देव निवास करते हैं । वे इस प्रकार हैं-वृहस्पति, चन्द्र, सूर्य, शुक्र, शनैश्चर, राहू, धूमकेतु, बुध एवं अंगारक (मंगल)। ये तपे हुए तपनीय स्वर्ण के समान वर्णवाले (किंचित् रक्त वर्ण) हैं। तथा ज्योतिष्क क्षेत्र में विचरण करने वाले ग्रह, गति में रत रहने वाला केतु, अट्ठाईस प्रकार के नक्षत्रगण, नामा आकारों के पांच वर्णो के तारे तथा स्थितलेश्या वाले, संचार करने वाले, अविश्रान्त मण्डलाकार गति करने वाले ये सब ज्योतिष्कदेव इन विमानों में रहते हैं। इन सबके मुकुट में अपने अपने नाम का चिह्न होता है। ये महर्द्धिक होते हैं यावत् दसों दिशाओं को प्रभासित करते हुए विचरते हैं।
ये ज्योतिष्क देव वहाँ अपने अपने लाखों विमानावासों का, अपने हजारों समानिक देवों का, अपनी अग्रमहिषियों, अपनी परिषदों का, अपनी सेना और सेनाधिपति देवों का, हजारों आत्मक्षक देवों का और बहुत से ज्योतिष्क देवों और देवियों का आधिपत्य करते हुए रहते हैं। इन्हीं में ज्योतिष्केन्द्र ज्योतिष्कराज चन्द्रमा और सूर्य दो इन्द्र हैं, जो महर्द्धिक यावत् दसों दिशाओं को प्रकाशित करते हैं। वे अपने लाखों विमानावासों का, चार हजार सामानिक देवों का, चार अग्रमहिषियों का, तीन परिषदों का, सात सेना और सेनाधिपतियों का सोलह हजार आत्मरक्षक देवों का तथा अन्य बहुत से ज्योतिष्क देव-देवियों का आधिपत्य करते हुए विचरते हैं।
इन सूर्य और चन्द्र इन्द्रों की तीन तीन परिषदाएँ हैं। उनके नाम तुंबा, त्रुटिता, और प्रेत्या हैं। आभ्यन्तर परिषद् तुंबा कहलाती हैं, मध्यम परिषद् त्रुटिता है और बाह्य परिषद प्रेत्या है। इन परिषदों में देवों और देवियों की संख्या तथा उनकी स्थिति पूर्ववर्णित काल इन्द्र की तरह जाननी चाहिए। परिषदों का अर्थ आदि अधिकार चमरेन्द्र के वर्णन के अनुसार जानना चाहिए। सूर्य की तरह ही चन्द्रमा का अधिकार भी समझ लेना चाहिए।