Book Title: Agam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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तृतीय प्रतिपत्ति :एकोरुक द्वीप का वर्णन]
[२९३ एकोरुकद्वीप का वर्णन
१११.[१] एगोरुयदीवस्स णं भंते ! दीवस्स केरिसए आगारभावपडोयारे पण्णत्ते ?
गोयमा! एगोरुयदीवस्सणंदीवस्स अंतो बहुसमरमणिग्जे भूमिभागेपण्णत्ते,सेजहानामए आलिंगपुक्खरेइ वा, एवं सयणिजे भाणियव्वे जाव पुढविसिलापट्टगंसि तत्थ णं बहवे एगोरुयदीवया मणुस्सा य मणुस्सीओ य आसयंति जाव विहरंति।।
[१११] (१) हे भगवन् ! एकोरुकद्वीप की भूमि आदि का स्वरूप किस प्रकार का कहा गया है ?
गौतम ! एकोरुकद्वीप का भीतरी भूमिभाग बहुत समतल और रमणीय कहा गया है। जैसे मुरज (मृदंग विशेष) का चर्मपुट समतल होता है वैसा समतल वहाँ का भूमिभाग है-आदि। इसी प्रकार शय्या की मृदुता भी कहनी चाहिए यावत् पृथ्वीशिलापट्टक का भी वर्णन करना चाहिए। उस शिलापट्टक पर बहुत से एकोरुकद्वीप के मनुष्य और स्त्रियां उठते-बैठते हैं यावत् पूर्वकृत शुभ कर्मों के फल का अनुभव करते हुए विचरते हैं।
विवेचन-प्रस्तुत सूत्र में एकोरुकद्वीप की भूमिरचना का वर्णन किया गया है। वहाँ का भूमिभाग एकदम समतल है। इस समतलता को बताने के लिए विविध उपमाओं का सहारा लिया गया है। सूत्र में साक्षात् रूप से 'आलिंगपुक्करेइ वा' कहा गया है जिसका अर्थ है-आलिंग अर्थात् मुरज। मुरज मृदंग का ही एक प्रकार है। पुष्कर का अर्थ है-चर्मपुटक। जैसे मुरज और मृदंग का चर्मपुट एकदम समतल होता है उसी प्रकार एकोरुकद्वीप का भूमिभाग एकदम समतल और रमणीय है यावत् शब्द से अन्य निम्न उपमाओं का ग्रहण समझना चाहिए
जैसे मृदंग का मुख चिकना और समतल होता हैं, जैसे पानी से लबालब भरे तालाब का पानी समतल होता है, जैसे हथेली का तलिया, चन्द्रमण्डल, सूर्यमण्डल, दर्पण का तल जैसे समतल होते हैं वैसे ही वहाँ का भूमिभाग समतल है। जैसे भेड़, बैल, सूअर, सिंह, व्याघ्र, वृक (भेड़िया) और चीता इनके चर्म को बड़ी-बड़ी कीलों द्वारा खींचकर अति समतल कर दिया जाता है वैसे ही वहाँ का भूमिभाग अति समतल और रमणीय है। वह भूमि आवर्त प्रत्यावर्त, श्रेणी, प्रश्रेणी, स्वस्तिक, सौवस्तिक, पुष्यमान, वर्द्धमान, मत्स्याण्ड, मकराण्ड, जार-मार पुष्पावलि, पद्मपत्र, सागरतरंग, वासन्तीलता, पद्मलता, आदि नाना प्रकार के मांगलिक रूपों की रचना से चित्रित तथा सुन्दर दृश्य वाले, सुन्दर कान्ति, सुन्दर शोभा वाले, चमकती हुई उज्ज्वल किरणों वाले और प्रकाश वाले नाना प्रकार के पांच वर्णों वाले तृणों और मणियों से उपशोभित होती रहती है। वह भूमिभाग कोमलस्पर्श वाला है। उस कोमलस्पर्श को बताने के लिए शय्या का वर्णनक कहना चाहिए। तात्पर्य यह है कि आजिनक (मृगचर्म), रूई, बूर (वनस्पतिविशेष), मक्खन, तूल जैसे मुलायम स्पर्श वाली भूमि है। वह भूमिभाग रत्नमय, स्वच्छ, चिकना, घृष्ट (घिसा हुआ), मृष्ट (मंजा हुआ), रजरहित, निर्मल, निष्पंक, कंकररहित, सप्रभ, सश्रीक, उद्योतवाला प्रसाद पैदा करनेवाला दर्शनीय, अभिरूप और प्रतिरूप है।
वहाँ पृथ्वीशिलापट्टक भी है जिसका वर्णन औपपातिकसूत्रानुसार जान लेना चाहिए। उस शिलापट्टक