Book Title: Agam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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प्रथम प्रतिपत्ति: मनुष्यों का प्रतिपादन]
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की होती है। इनके वऋषभनाराचसंहनन और समचतुरस्रसंस्थान होता है। इनकी पसलियाँ २५६ होती हैं, तीन दिन के अन्तर से आहार करते हैं और ४९ दिन तक अपत्य-पालना करते हैं।
अन्तीपज-अन्तर् शब्द 'मध्य' का वाचक है। लवणसमुद्र के मध्य में जो द्वीप हैं वे अन्तर्वीप कहलाते हैं। ये अन्तर्वीप छप्पन हैं। इनमें रहने वाले मनुष्य अन्तीपज कहलाते हैं।
ये अन्तर्वीप हिमवान और शिखरी पर्वतों की लवणसमुद्र में निकली दााढाऔं पर स्थित हैं। जम्बूद्वीप में भरतक्षेत्र की सीमा पर स्थित हिमवान पर्वत के दोनों छोर पूर्व-पश्चिम लवणसमुद्र में फैले हुए हैं। इसी प्रकार ऐरवत क्षेत्र की सीमा पर स्थित शिखरी पर्वत के दोनों छोर भी लवणसमुद्र में फैले हुए हैं। प्रत्येक छोर दो भागों में विभाजित होने से दोनों पर्वतों के आठ भाग लवणसमुद्र मे जाते हैं। हाथी के दांतों के समान आकृति वाले होने से इन्हें दाढा कहते हैं। प्रत्येक दाढा पर मनुष्यों की आबादी वाले सात-सात क्षेत्र हैं। इस प्रकार ८ x ७ = ५६ अन्तर्वीप हैं। इनमें रहने वाले मनुष्य अन्तर्वीपज कहलाते हैं।
हिमवान पर्वत से तीन सौ योजन की दूरी पर लवणसमुद्र में ३०० योजन विस्तार वाले १. एकोरुक, . २. आभासिक, ३. वैषाणिक और ४. लांगलिक नामक चार द्वीप चारों दिशाओं में हैं। इनके आगे चारचार सौ योजन दूरी पर चार सौ योजन विस्तार वाले ५. हयकर्ण, ६. गजकर्ण,७. गोकर्ण और ८. शष्कुलकर्ण नामक चार द्वीप चारों विदिशाओं में हैं।
इसके आगे पांच सौ योजन जाने पर पांच सौ योजन विस्तार वाले ९. आदर्शमुख, १०. मेंढमुख, ११. अयोमुख, १२. गोमुख नामक चार द्वीप चारों विदिशाओं में हैं। इनके आगे छह सौ योजन जाने पर छह सौ योजन विस्तार वाले १३. हयमुख, १४. गजमुख, १५. हरिमुख और १६. व्याघ्रमुख नामक चार द्वीप चारों विदिशाओं में हैं। इसके आगे सात सौ योजन जाने पर सात सौ योजन विस्तार वाले १७. अश्वकर्ण, १८. सिंहकर्ण, १९. अकर्ण और २०. कर्णप्रावरण नामक चार द्वीप चारों विदिशाओं में हैं। इनसे आठ सौ योजन आगे आठ सौ योजन विस्तार वाले २१. उल्कामुख, २२. मेघमुख, २३. विद्युत्मुख और २४. अमुख नाम के चार द्वीप चारों विदिशाओं में हैं। इससे नौ सौ योजन आगे नौ सौ योजन विस्तार वाले २५. घनदन्त, २६. लष्टदन्त, २७. गूढदन्त और २८. शुद्धदन्त नाम के चार द्वीप चारों विदिशाओं में हैं। ये सब अट्ठाईसों द्वीप जम्बूद्वीप की जगती से तथा हिमवान पर्वत से तीन सौ योजन से लगाकर नौ सौ योजन दूर हैं।
इसी तरह ऐरवत क्षेत्र की सीमा करने वाले शिखरी पर्वत की दाढों पर भी इन्हीं नाम वाले २८ द्वीप हैं। इस तरह दोनों तरफ के मिलकर छप्पन अन्तर्वीप होते हैं । अन्तर्वीप में एक पल्योपम के असंख्यातवें भाग की आयु वाले युगलिक मनुष्य रहते हैं। इन द्वीपों में सदैव तीसरे आरे जैसी रचना रहती है।
यहाँ के स्त्री-पुरुष सर्वांग सुन्दर एवं स्वस्थ होते हैं। वहाँ रोग तथा उपद्रवादि नहीं होते हैं। उनमें स्वामी-सेवक व्यवहार नहीं होता। उनकी पीठ में ६४ पसलियाँ होती हैं। उनका आहार एक चतुर्थभक्त के बाद होता है तथा मिट्टी एवं कल्पवृक्ष के फलादि चक्रवर्ती के भोजन से अनेक गुण अच्छे होते हैं।
यहाँ के मनुष्य मंदकषाय वाले, मृदुता-ऋजुता से सम्पन्न तथा ममत्व और वैरानुबन्ध से रहित होते