Book Title: Agam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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प्रथम प्रतिपत्ति: भवस्थिति का प्रतिपादन]
प्रतिसमय एक-एक के मान से अपहार करने में जितनी उत्सर्पिणी- अवसर्पिणियां लगती हैं, उतने काल तक त्रसजीव त्रस के रूप में रह सकता है। इतनी कायस्थिति गतित्रस - तेजस्काय और वायुकाय की अपेक्षा से ही सम्भव है, लब्धत्रस की अपेक्षा से नहीं । लब्धित्रस की उत्कर्ष से कायस्थिति कतिपय वर्ष अधिक दो हजार सागरोपम की ही हैं।
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अन्तर-स्थावर जीव के स्थावरत्व को छोड़ने के बाद फिर कितने समय बाद वह पुनः स्थावर बन सकता है ? इसके उत्तर में कहा गया है कि असंख्येय उत्सर्पिणी- अवसर्पिणी काल से और क्षेत्र से असंख्यात लोक़ का अन्तर पड़ता है । इतना अन्तर तेजस्काय, वायुकाय में जाने की अपेक्षा सम्भव है। अन्यत्र जाने पर इतना अन्तर सम्भव नहीं है ।
त्रसकाय के त्रसत्व को छोड़ने के बाद कितने समय बाद पुन: त्रसत्व प्राप्त हो सकता है ? इसके उत्तर में कहा गया है कि उत्कृष्ट से वनस्पतिकाल जितना अन्तर है। अर्थात् उत्कृष्ट से अनन्त - अनन्त उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी का और क्षेत्र से अनन्त लोक का अन्तर पड़ता है। इसकी स्पष्टता ऊपर की जा चुकी है । इतना अन्तर वनस्पतिकाय में जाने पर ही सम्भव है, अन्यत्र जाने पर नहीं ।
अल्पबहुत्व में सबसे थोड़े त्रस जीव हैं क्योंकि वे असंख्यात हैं। उनसे स्थावर अनन्तगुण हैं, क्योंकि वे अजघन्योत्कृष्ट अनन्तानन्त हैं ।
इस प्रकार दो प्रकार के संसारी जीवों का प्रतिपत्ति का वर्णन हुआ। यह दो प्रकार के जीवों की प्रतिपत्तिरूप प्रथम प्रतिपत्ति का प्रतिपादन हुआ ।
॥ प्रथम प्रतिपत्ति पूर्ण ॥