Book Title: Agam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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[जीवाजीवाभिगमसूत्र
पविरायमेव पासेज्जा, तं चेव णं जाव णो चेव णं संचाएज्जा पुणरवि पच्चुद्धरित्तए । से णं से जहाणामए मत्तमायंगे तहेव जाव सोक्खबहुले यावि विहरेज्जा ] एवामेव गोयमा ! असब्भावपट्टवणाए सीयवेदणेहिंतो णरएहिंतो नेरइए उव्वट्टिए समाणे जाई इमाई इहं माणुस्लोए हवंति, तं जहा - हिमाणि वा हिमपुंजाणि वा हिमपउलाणि वा हिमपउलपुंजाणिवा, तुसाराणि वा, तुसारपुंजाणि वा, हिमकुंडाणि वा हिमकुंडपुंजाणि वा सीयणि वा ताई पासइ, पासिता ताई ओगाहति, ओगाहित्ता से णं तत्थ सीयं पि पविणेज्जा, तहं पि पविणेज्जा खुहं पि प० जरं पिप० दाहं पि पविणेज्जा निद्दाएज्ज वा पयलाएज्ज वा जाव उसिणे उसिणभूए संकसमाणें संकसमाणें सायासोक्खबहुले यावि विहरेज्जा ।
गोयमा ! सीयवेयणिज्जेसु नरएसु नेरइया एत्तो अणिट्ठतरियं चेव सीयवेयणं पच्चणुभवमाणा विहरंति ।
[८९] (५) हे भगवन् ! शीतवेदनीय नरकों में नैरयिक जीव कैसी शीतवेदना का अनुभव करते
हैं ?
गौतम ! जैसे कोई लुहार का लड़का जो तरुण, युगवान् बलवान् यावत् शिल्पयुक्त हो, एक बड़े लोहे के पिण्ड को जो पानी के छोटे घड़े के बाराबर हो, लेकर उसे तपा - तपाकर, कूट-कूटकर जघन्य एक दिन, दो दिन, तीन दिन, उत्कृष्ट से एक मास तक पूर्ववत् सब क्रियाएँ करता रहे तथा उस उष्ण और पूरी तरह उष्ण गोले को लोहे की संडासी से पकड़ कर असत् कल्पना द्वारा उसे शीतवेदनीय नरकों में डाले (मैं अभी उन्मेष-निमेष मात्र समय में उसे निकाल लूंगा, इस भावना से डाले परन्तु वह पल-भर बाद उसे फूटता हुआ, गलता हुआ, नष्ट होता हुआ देखता है, वह उसे अस्फुटित रूप से निकालने में समर्थ नहीं होता है । इत्यादि वर्णन पूर्ववत् कहना चाहिए। तथा मस्त हाथी का उदाहरण भी वैसे ही कहना चाहिए यावत् वह सरोवर से निकलकर सुखशान्ति से विचरता है।) इसी प्रकार हे गौतम! असत् कल्पना से शीतवेदना वाले नरकों से निकला हुआ नैरयिक इस मनुष्य लोक में शीतप्रधान जो स्थान हैं जैसे कि हिम, हिमपुंज, हिमपटल, हिमपटल के पुंज, तुषार, तुषार के पुंज, हिमकुण्ड, हिमकुण्ड के पुंज, शीत और शीतपुंज आदि को देखता है, देखकर उनमें प्रवेश करता है; वह वहाँ अपने नारकीय शीत को, तृषा को, भूख को, को, दाह को, मिटा लेता है और शान्ति के अनुभव से नींद भी लेता है, नींद से आंखें बन्द कर लेता है यावत् गरम होकर अति गरण होकर वहाँ से धीरे धीरे निकल कर साता सुख का अनुभव करता है । हे गौतम! शीतवेदनीय नरकों में नैरयिक इससे भी अनिष्टतर शीतवेदना का अनुभव करते हैं । नैरयिकों की स्थिति
ज्वर
९०. इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए णेरइयाणं केवइयं ठिई पण्णत्ता ? गोयमा ! जहन्त्रेण वि उक्कोसेण वि ठिई भाणियव्वा जाव अहेसत्तमाए । [९०] हे भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिकों की स्थिति कितनी कही गई है ?