Book Title: Agam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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तृतीय प्रतिपत्ति: एक-अनेक-विकुर्वणा]
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अण्णमण्णस्स कायं अभिहणमाणाअभिहणमाणा वेयणं उदीरेंति विउलं पगाढं कक्कसं कडुयं फरुसं निठुरं चंडं तिव्वं दुग्गं दुरहियासं एवं जाव धूमप्पभाए पुढवीए।छट्ठसत्तमासुणं पुढवीसु नेरइया बहु महंताई लोहियकुंथुरूवाइंवइरामयतुंडाइंगोमयकीडसमाणाइं विउव्वंति, विउव्वित्ता अन्नमन्नस्स कायं समतुरंगेमाणा खायमाणा खायमाणा सयपोरागकिमिया विव चालेमाणा चालेमाणा अंतो अंतो अणुप्पविसमाणा अणुप्पविसमाणा वेदणं उदीरंति उज्जलं जावदुरहियासं।
[८९] (२) हे भगवन् ! रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिक क्या एक रूप बनाने में समर्थ हैं या बहुत से रूप बनाने में समर्थ हैं ?
गौतम ! वे एक रूप भी बना सकते हैं और बहुत रूप भी बना सकते हैं। एक रूप बनाते हुए वे एक मुद्गर रूप बनाने में समर्थ हैं, इसी प्रकार एक भुसंढि (शस्त्रविशेष), करवत, तलवार, शक्ति, हल, गदा, मूसल, चक्र, बाण, भाला, तोमर, शूल, लकुट (लाठी) और भिण्डमाल (शस्त्रविशेष) बनाते हैं और बहुत रूप बनाते हुए बहुत से मुद्गर भूसंढी यावत् भिण्डमाल बनाते हैं। इन बहुत शस्त्र रूपों की विकुर्वणा करते हुए वे संख्यात शस्त्रों की ही विकुर्वणा कर सकते हैं, असंख्यात की नहीं। अपने शरीर से सम्बद्ध की विकुर्वणा कर सकते हैं, असम्बद्ध की नहीं, सदृश की रचना कर सकते हैं, असदृश की नहीं। इन विविध शस्त्रों की रचना करके एक दूसरे नैरयिक पर प्रहार करके वेदना उत्पन्न करते हैं। वह वेदना उज्ज्वल अर्थात् लेशमात्र भी सुख न होने से जाज्वल्यमान होती है उन्हें जलाती है, वह विपुल है-सकल शरीरव्यापी होने से विस्तीर्ण है, वह वेदना प्रगाढ़ है-मर्मदेशव्यापी होने से अतिगाढ़ होती है, वह कर्कश होती है (जैसेपाषाणखंड का संघर्ष शरीर के अवयवों को तोड़ देता है उसी तरह से वह वेदना आत्मप्रदेशों को तोड़सी देती है। वह कटुक औषधिपान की तरह कड़वी होती है, वह परुष-कठोर (मन में रूक्षता पैदा करने वाली) होती है, निष्ठुर होती है(अशक्य प्रतीकार होने से दुर्भेद्य होती है) चण्ड होती है (रौद्र अध्यवसाय का कारण होने से), वह तीव्र होती है (अत्यधिक होने से) वह दुःखरूप होती है, वह दुर्लध्य और दुःसह्य होती है। इस प्रकार धूमप्रभापृथ्वी (पांचवी नरक) तक कहना चाहिए।
___छठी और सातवीं पृथ्वी के नैरयिक बहुत और बड़े (गोबर के कीट केसमान) लाल कुन्थुओं की रचना करते हैं, जिनका मुख मानो वज्र जैसा होता है और जो गोबर के कीड़े जैसे होते हैं। ऐसे कुन्थुरूप की विकुर्वणा करके वे एक दूसरे के शरीर पर चढ़ते हैं, उनके शरीर को बार बार काटते हैं और सौ पर्व वाले इक्षु के कीड़ों की तरह भीतर ही भीतर सनसनाहट करते हुए घुस जाते हैं और उनको उज्ज्वल यावत् असह्य वेदना उत्पन्न करते हैं।
८९.[३] इमीसेणंभंते ! रयणप्पभाए पुढवीए नेरइया किं सीयवेदणं वेदेति, उसिणवेयणं वेदेति, सीओसिणवेयणं वेदेति ?
गोयमा !णो सीयंवेदणंवेदेति, उसिणंवेदणं वेदेति, णो सीयोसिणं,एवंजावबालुयप्पभाए।
१. यहाँ प्रतियों में ('ते अप्पयरा उण्हजोणिया वेदेति')पाठ अधिक है जो संगत नहीं है। भूल से लिखा गया प्रतीत होता है। -संपादक