Book Title: Agam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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प्रथम प्रतिपत्ति: नैरयिक-वर्णन]
किन्तु तथाविध अत्यन्त अशुभ नामकर्म के उदय से अत्यन्त अशुभ शरीर ही बना पाते हैं अतः वह भी हुण्डसंस्थान वाला ही होता है।
कषायद्वार - नारकों में चारो ही कषाय होते हैं ।
संज्ञाद्वार - नारकों में चारों ही संज्ञाएँ पायी जाती हैं।
लेश्याद्वार - नारकों में आदि की तीन अशुभ लेश्याएँ कृष्ण, नील, और कापोत पाई जाती हैं। पहली और दूसरी नरक - भूमि में कापोतलेश्या, तीसरी नरक के कुछ नरकावासों में कापोतलेश्या और शेष में नीललेश्या; चौथी नरक में नीललेश्या, पांचवीं के कुछ नरकावासों में नीललेश्या और शेष में कृष्णलेश्या; छठी में कृष्णलेश्या और सातवीं नरक में परम कृष्णलेश्या पाई जाती है।
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भगवतीसूत्र में कहा है-' आदि के दो नरकों में कापोतलेश्या, तीसरी में मिश्र (कापोत- नील), , चौथी में नील, पांचवी में मिश्र (नील - कृष्ण ), छठी में कृष्ण और सातवीं में परम कृष्णलेश्या होती है।'' इन्द्रियद्वार - नैरयिकों के स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्षु, श्रोत्र ये पांच इन्द्रियाँ होती हैं । समुद्घातद्वार - इनके चार समुद्घात होते हैं - वेदना, कषाय, वैकिय और मारणान्तिक ।
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संज्ञीद्वार - ये नारकी जीव संज्ञी भी होते हैं और असंज्ञी भी होते हैं। जो गर्भव्युत्क्रान्तिक (गर्भज) मर कर नारकी होते हैं वे संज्ञी कहे जाते हैं और जो संमूर्छितों से आकर उत्पन्न होते हैं, वे असंज्ञी कहलाते हैं। ये रत्नप्रभा में ही उत्पन्न होते हैं, आगे के नरकों में नहीं। क्योंकि अविचारपूर्वक जो अशुभ क्रिया की जाती है उसका इतना ही फल होता है। कहा है
असंज्ञी जीव पहली नरक तक, सरीसृप दूसरी नरक तक, पक्षी तीसरी नरक तक, सिंह चौथी नरक तक, उरग (सर्पादि) पांचवी नरक तक, स्त्री छठी नरक तक और मनुष्य एवं मच्छ सातवीं नरक तक उत्पन्न होते हैं।
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वेदद्वार- - नारक जीव नपुंसक ही होते हैं ।
पर्याप्तिद्वार – इनमें छह पर्याप्तियाँ और छह अपर्याप्तियाँ होती हैं । भाषा और मन की एकत्व विवक्षा से वृत्तिकार ने पांच पर्याप्तियाँ और पांच अपर्याप्तियाँ कही हैं ।
दृष्टिद्वार - नारक जीव तीनों दृष्टि वाले होते हैं - १. मिथ्यादृष्टि, सम्यग्दृष्टि और मिश्रदृष्टि । दर्शनद्वार – इनमें चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन और अवधिदर्शन यों तीन दर्शन पाये जाते हैं।
१. काऊ य दोसु तइयाए मीसिया नीलिया चउत्थिए । पंचमियाए मीसा, कण्हा तत्तो परमकण्हा ॥
२. असन्नी खलु पढमं दोच्चं व सिरीसवा तइय पक्खी । सीहा जंति चउत्थिं उरगा पुण पंचमिं पुढविं ॥ छट्ठि व इत्थियाओ मच्छा मणुया य सत्तमि पुढविं । एसो परमोवाओ बोद्धाव्वो नरयपुढवी ॥
- भगवतीसूत्र