Book Title: Agam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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[जीवाजीवाभिगमसूत्र
(६) तमःप्रभा........
२५० धनुष
५०० धनुष (७) अधःसप्तमपृथ्वी ___५०० धनुष
१००० धनुष सहननद्वार-नारक जीवों के शरीर संहनन वाले नहीं होते। छह प्रकार के संहननों में से कोई भी संहनन उनके नहीं होता, क्योंकि उनके शरीरों में न तो शिराएँ (धमनी नाड़ियाँ) होती हैं और न स्नायु (छोटी नाड़ियाँ), उनके शरीर में हड्डियाँ नहीं होती। संहनन की परिभाषा है-अस्थियों का निचय होना। जब नैरयिकों के शरीर में अस्थियाँ हैं ही नहीं तो संहनन का सवाल ही नहीं उठता है।
यहाँ यह शंका की जा सकती है कि पहले एकेन्द्रिय जीवों में सेवार्त संहनन बताया गया है, किन्तु उनके भी अस्थियाँ नहीं होती हैं ? इसका समाधान यह है कि एकेन्द्रियों के औदारिक शरीर होता है और उस शरीर के सम्बन्ध मात्र की अपेक्षा से औपचारिक सेवार्तसंहनन कहा है। वास्तव में वह भी गौणरूप से और उपचारमात्र से कहा गया है। देवों में पर्वतादि को उखाड़ने की शक्ति हो, उन्हें इस कार्य में जरा भी शारीरिक श्रम या थकावट नहीं होती, इस दृष्टि से उन्हें वज्रसंहननी कहा गया है। वस्तु-दृष्टि से तो वे असंहननी ही हैं।
कोई यह शंका कर सकता है कि 'शक्तिविशेष को संहनन कहते हैं इस परिभाषा के अनुसार देवों में मुख्य रूप में संहनन मानना घटित हो सकता है। यह शंका सिद्धान्तबाधित है, क्योंकि इसी सूत्र में संहनन की परिभाषा 'अस्थिनिचयात्म' की गई है और स्पष्ट कहा गया है कि अस्थियों के अभाव में नैरयिकों में छह संहननों में से कोई संहनन नहीं होता।
__पुनः शंका हो सकती है कि, यदि नारकियों के संहनन नहीं है तो उनके शरीरों का बन्ध कैसे घटित होगा ? इसका समाधान करते हुए सूत्रकार कहते हैं कि-तथाविध पुद्गलस्कन्धों की तरह उनके शरीर का बन्ध हो जाता है। जो पुद्गल अनिष्ट, अकान्त, अप्रिय, अशुभ, अमनोज्ञ और अमनाम होते हैं वे उन नैरयिकों के शरीर के रूप में परिणत हो जाते हैं।
वृत्तिकार ने अनिष्ट आदि पदों का अर्थ इस प्रकार दिया हैअनिष्ट-जिसकी इच्छा ही न की जाय, अकान्त-अकमनीय, जो सुहावने न हों, अत्यन्त अशुभ वर्णादि वाले, अप्रिय-जो दिखते ही अरुचि उत्पन्न करें, अशुभ-खराब वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श वाले, अमनो-जो मन में आह्लाद उत्पन्न नहीं करते क्योंकि विपाक दुःखजनक होता है, अमनाम-जिनके प्रति रुचि उत्पन्न न हो।
संस्थानद्वार-नारकों के भवधारणीय और उत्तरवैक्रिय-दोनों प्रकार के शरीर हुण्डसंस्थान वाले हैं। तथाविध भवस्वभाव से नारकों के शरीर जड़मूल से उखाड़े गये पंख और ग्रीवा आदि अवयव वाले रोमपक्षी की तरह अत्यन्त वीभत्स होते हैं। उत्तरविक्रिया करते हुए नारक चाहते हैं कि वे शुभ-शरीर बनायें