Book Title: Agam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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प्रथम प्रतिपत्ति: नैरयिक-वर्णन]
होते हैं। वे जीव संज्ञी भी हैं, असंज्ञी भी हैं। वे नपुंसक वेद वाले हैं। उनके छह पर्याप्तियाँ और छह अपर्याप्तियाँ होती हैं। वे तीन दृष्टि वाले और तीन दर्शन वाले हैं । वे ज्ञानी भी हैं और अज्ञानी भी हैं। जो ज्ञानी हैं वे नियम से तीन ज्ञान वाले हैं - मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी । जो अज्ञानी हैं उनमें से कोई दो अज्ञान वाले और कोई तीन अज्ञान वाले हैं। जो दो अज्ञान वाले हैं वे नियम से मतिअज्ञानी और श्रुतअज्ञानी हैं और जो तीन अज्ञान वाले हैं वे नियम से मतिअज्ञानी, श्रुतअज्ञानी और विभंगअज्ञानी हैं ।
उनमें तीन योग, दो उपयोग एवं छह दिशाओं का आहार ग्रहण पाया जाता हैं। प्राय: करके वे वर्ण से काले आदि पुद्गलों का आहार ग्रहण करते हैं । तिर्यंच और मनुष्यों से आकर वे नैरयिक रूप में उत्पन्न होते हैं। उनकी स्थिति जघन्य ं दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम की है। वे दोनों प्रकार से (समवहत और असमवहत) मरते हैं। वे मरकर गर्भज तिर्यंच एवं मनुष्य में जाते हैं, संमूर्छिमों में वे नहीं जाते, अतः हे आयुष्मन् श्रमण ! वे दो गति वाले, दो आगति वाले, प्रत्येकशरीरी और असंख्यात कहे गये हैं। यह नैरयिकों का कथन हुआ।
विवेचन-प्रस्तुत सूत्र में नैरयिकों के प्रकार बताकर तेवीस द्वारों के द्वारा उनका निरूपण किया गया है। नैरयिक जीव सात प्रकार के हैं—१. रत्नप्रभापृथ्वी - नैरयिक, २. शर्कराप्रभापृथ्वी - नैरयिक, ३. वालुकाप्रभापृथ्वी-नैरयिक, ४. पंकप्रभा पृथ्वी - नैरयिक, ५. धूमप्रभापृथ्वी - नैरयिक, ६. तमः प्रभापृथ्वी - नैरयिक और ७. अधः सप्तमपृथ्वी - नैरयिक | ये नैरयिक जीव संक्षेप में दो प्रकार के हैं - पर्याप्त और अपर्याप्त । इनके शरीरादि द्वारों की विचारणा इस प्रकार है
शरीरद्वार-नैरयिकजीवों में औदारिकशरीर नहीं होता । भवस्वभाव से ही उनका शरीर वैक्रिय होता हैं । अतः वैक्रिय, तैजस, और कार्मण- ये तीन शरीर उनमें पाये जाते हैं ।
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अवगाहना - उनकी अवगाहना दो प्रकार की है - भवधारणीय और उत्तरवैक्रियिकी । जो जन्म से होती है वह भवधारणीय है और जो भवान्तर के वैरी नारक के प्रतिघात के लिए बाद में विचित्र रूप से बनाई जाती है वह उत्तरवैक्रियिकी है ।
नारकियों की भवधारणीय अवगाहना तो जघन्य से अंगुल का असंख्यातवां भाग है जो जन्मकाल में होती है । उत्कृष्ट अवगाहना ५०० धनुष की है। यह उत्कृष्ट प्रमाण सातवीं पृथ्वी की अपेक्षा से है । इनकी उत्तरवैक्रियिकी अवगाहना जघन्य से अंगुल का संख्यातवां भाग और उत्कृष्ट से हजार धनुष की है। यह उत्कृष्ट प्रमाण सातवीं नरकभूमि की अपेक्षा से है। अलग-अलग नैरयिकों की भवधारणीय और उत्तरवैक्रियिकी उत्कृष्ट अवगाहना इस कोष्टक से जाननी चाहिए
पृथ्वी का नाम
भवधारणीय अवगाहना
(१) रत्नप्रभा........ (२) शर्कराप्रभा....
(३) बालुकाप्रभा.... (४) पंकप्रभा .....
(५) धूमप्रभा .....
७ ॥ । धनुष ६ अंगुल
१५ ॥ धनुष १२ अंगुल
३१ । धनुष
६२ ॥ धनुष
१२५ धनुष
उत्तरवैक्रियिकी अव. १५ ॥ धनुष १२ अंगुल
३१ । धनुष
६२ ॥ धनुष
१२५ धनुष
२५० धनुष