Book Title: Agam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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३२]
[जीवाजीवाभिगमसूत्र
किं एगिदिएसु उववजंति जाव पंचिंदिएसु उववजंति ?
गोयमा! एगिदिएस उववजंति जाव पंचिंदियतिरिक्खजोणिएस उववजंति, असंखेजवासाउयवज्जेसु पज्जात्तापजत्तएसु उववति।
मणुस्सेसुअकम्मभूभग-अंतरदीवग-असंखेजवासाउयवज्जत्तेसु उववति।
[२२] भगवन्! वे जीव वहाँ से निकलकर अगले भव में कहाँ जाते हैं ? कहाँ उत्पन्न होते हैं ? क्या वे नैरयिकों में, तिर्यञ्चों में, मनुष्यों में और देवों में उत्पन्न होते हैं ?
गौतम! नैरयिकों में उत्पन्न नहीं होते, तिर्यंचों में उत्पन्न होते हैं, मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं, देवों में उत्पन्न नहीं होते।
भंते! क्या वे एकेन्द्रियों में यावत् पंचेन्द्रियों में उत्पन्न होते हैं ?
गौतम! वे एकेन्द्रियों में उत्पन्न होते हैं, यावत् पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिकों में उत्पन्न होते हैं, लेकिन असंख्यात वर्षायु वाले तिर्यंचों को छोड़कर शेष पर्याप्त-अपर्याप्त तिर्यंचों में उत्पन्न होते हैं।
अकर्मभूमि वाले, अन्तरद्वीप वाले तथा असंख्यातवर्षायु वाले मनुष्यों को छोड़कर शेष पर्याप्त-अपर्याप्त मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं।
[२३] ते णं भंते! जीवा कतिगतिका कतिआगतिका पण्णत्ता ? गोयमा! दुगतिका दुआगतिका परित्ता असंखेज्जा पण्णत्ता समणाउसो!
से तं सुहुमपुढविक्काइया॥ [२३] भगवन्! वे जीव कितनी गति में जाने वाले और कितनी गति से आने वाले हैं ?
गौतम! वे जीव दो गति वाले और दो आगति वाले हैं । हे आयुष्मन् श्रमण! वे जीव प्रत्येक शरीर वाले और असंख्यात लोकाकाश प्रदेश प्रमाण कहे गये हैं।
यह सूक्ष्म पृथ्वीकायिक का वर्णन हुआ॥ विवेचन–प्रस्तुत सूत्र में सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीवों के सम्बन्ध में २३ द्वारों के द्वारा विशेष जानकारी भगवान् श्री गौतम के प्रश्नों और देवाधिदेव प्रभु श्री महावीर के उत्तर के रूप में दी गई है।
यहाँ मूल सूत्र में भंते!' पद के द्वारा श्री गौतमस्वामी ने प्रभु महावीर को सम्बोधन किया है। 'भंते!' का अर्थ सामान्यतया 'भगवन्' होता है। टीकाकार ने भदन्त अर्थात् परम कल्याणयोगिन् ! अर्थ किया है। सचमुच भगवान् महावीर परम सत्यार्थ का प्रकाश करने के कारण परम कल्याणयोगी हैं।
यहाँ सहज जिज्ञासा होती हैं कि भगवान् गौतम भी मातृकापद श्रवण करते ही प्रकृष्ट श्रुतज्ञानावरण के क्षयोपशम से चौदह पूर्वो के ज्ञाता हो गये थे। चौदह पूर्वधारियों से कोई भी प्रज्ञापनीय भाव अविदित नहीं होता। विशेषतः गणधर गौतम तो सर्वाक्षरसन्निपाती और संभिन्न श्रोतोलब्धि जैसी सर्वोत्कृष्ट लब्धियों से