Book Title: Agam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________
६२ ]
जाते हैं।
तेजस् अर्थात् अग्नि । अग्नि ही जिनका शरीर है वे जीव तेजस्कायिक कहे जाते हैं । ये तेजस्कायिक जीव दो प्रकार के कहे गये हैं- सूक्ष्म तेजस्कायिक और बादर तेजस्कायिक । सूक्ष्म तेजस्कायिक जीव वे हैं जो सूक्ष्मनामकर्म के उदय वाले हैं और सारे लोक में व्याप्त हैं तथा जो मारने से मरते नहीं आदि कथन सूक्ष्म पृथ्वीकायिकों की तरह जानना चाहिए। तेवीस द्वारों की विचारणा में सब कथन सूक्ष्म पृथ्वीकाय की तरह समझना चाहिए । विशेषता यह कि सूक्ष्म तेजस्कायिकों का शरीर संस्थान सूइयों के समुदाय के समान है । च्यवनद्वार में ये सूक्ष्म तेजस्कायिक वहाँ से निकल कर तिर्यंचगति में ही उत्पन्न होते हैं, मनुष्यगति में उत्पन्न नहीं होते। आगम में कहा गया है कि सप्तम पृथ्वी के नैरयिक, तेजस्कायिक और वायुकायिक तथा असंख्यात वर्षों की आयु वाले अनन्तर मर कर मनुष्यगति में नहीं जाते। ' गति - आगति द्वार में - तेजस्कायिक तिर्यंचगति में ही जाते हैं और तिर्यंचगति, मनुष्यगति से आकर उनमें उत्पन्न होते हैं । इसलिए ये एक गति वाले और दो आगति वाले हैं।
बादर तेजस्कायिक- बादर तेजस्कायिक जीव वे हैं जो बादरनामकर्म के उदय वाले हैं। उनके अनेक प्रकार हैं, जैसे- इंगाल, ज्वाला, मुर्मुर यावत् सूर्यकांतमणिनिश्रित । यावत् शब्द से अर्चि, अलात, शुद्धाग्नि, उल्का, विद्युत, अशनि, निर्घात, संघर्षसमुत्थित का ग्रहण करना चाहिए।
इंगाल का अर्थ है धूम से रहित जाज्वल्यमान खैर आदि की अग्नि ।
ज्वाला का अर्थ है अग्नि से संबद्ध लपटें या दीपशिखा ।
मुर्मुर का अर्थ है भस्ममिश्रित अग्निकण - भोभर ।
का अर्थ है मूल अग्नि से असंबद्ध ज्वाला ।
लात का अर्थ है किसी काष्ठखण्ड में अग्रि लगाकर उसे चारों तरफ फिराने पर जो गोल चक्कर -सा प्रतीत होता है, वह उल्मुल्क या अलात है ।
शुद्धागि - लोहपिण्ड आदि में प्रविष्ट अग्नि, शुद्धाग्नि है ।
उल्का - एक दिशा से दूसरी तरफ जाती हुई तेजोमाला, चिनगारी ।
विद्युत - आकाश में चमकने वाली बिजली ।
[जीवाजीवाभिगमसूत्र
अशनि - आकाश से गिरते हुए अग्रिमय कण ।
निर्घात - वैक्रिय सम्बन्धित वज्रपात या विद्युतपात ।
संघर्ष - समुस्थित - अरणि काष्ठ की रगड़ से या अन्य रगड़ से उत्पन्न हुई अग्नि ।
सूर्यकान्तमणि- निसृत - प्रखर सूर्य किरणों के स्पर्श से सूर्यकान्तमणि से निकली हुई अग्नि ।
और भी इसी प्रकार की अग्रियां बादर तेजस्कायिक हैं। ये बादर तेजस्कायिक दो प्रकार के हैं
१. सत्तमी महिनेरइया तेऊ वाऊ अनंतरुव्वट्टा | नवि पावे माणुस्सं तहेवऽसंखाउया सव्वे ॥