Book Title: Agam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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प्रथम प्रतिपत्ति: पृथ्वीकाय का वर्णन ]
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में प्रायः बाह्य-आभ्यन्तर का भेद नहीं, तत्वार्थ की मूल टीका में यह भेद नहीं माना गया है।
उपकरण का अर्थ है आभ्यन्तर निर्वृत्ति की शक्ति-विशेष। बाह्य निर्वृत्ति तलवार के समान है और आभ्यन्तर निर्वृत्ति तलवार की धार के समान स्वच्छतर पुद्गल समूह रूप है। उपकरण इन्द्रिय और आभ्यन्तर निर्वृत्ति इन्द्रिय में थोड़ा भेद है, जो शक्ति और शक्तिमान में है। आभ्यन्तर निर्वृत्ति इन्द्रिय के होने पर भी उपकरणेन्द्रिय का उपघात होने पर विषय ग्रहण नहीं होता। जैसे कदम्बाकृति रूप आभ्यन्तर निर्वृत्ति इन्द्रिय के होने पर भी महाकठोर घनगर्जना आदि से शक्ति का उपघात होने पर शब्द सुनाई नहीं पड़ता।
भावेन्द्रिय दो प्रकार की हैं-१. लब्धि और २. उपयोग। आवरण का क्षयोपशम होना लब्धिइन्द्रिय है और अपने-अपने विषय में लब्धि के अनुसार प्रवृत्त होना-जानना उपयोग-भावेन्द्रिय है।
द्रव्येन्द्रिय-भावेन्द्रिय आदि अनेक प्रकार की इन्द्रियाँ होने पर भी यहाँ बाह्य निर्वृत्ति रूप इन्द्रिय को लेकर प्रश्नोत्तर समझने चाहिए। इसको लेकर ही एकेन्द्रियादि का व्यवहार होता है। बकुल आदि वनस्पतियाँ भावरूप से पाँचों इन्द्रियों के विषय को ग्रहण करती हैं किन्तु वे पंचेन्द्रिय नहीं कही जाती, क्योंकि उनके बाह्येन्द्रियाँ पाँच नहीं हैं। स्पर्शनरूप बाह्य इन्द्रिय एक होने से वे एकेन्द्रिय ही हैं।
सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीवों में केवल एक स्पर्शनेन्द्रिय ही होती है।
९. समुद्घातद्वार-वेदना आदि के साथ एकरूप होकर वेदनीयादि कर्मदलिकों का प्रबलता के साथ घात करना समुद्धात २ कहलाता है।
समुद्घात सात हैं-१. वेदनासमुद्घात, २. कषायसमुद्घात, ३. मारणान्तिकसमुद्घात, ४. वैक्रियसमुद्घात, ५. तैजससमुद्घात, ६. आहारकसमुद्घात और ७. केवलिसमुद्घात ।
१.वेदनासमुद्घात-असातावेदनीय कर्म को लेकर वेदनासमुद्घात होता है। तीव्रवेदना से आभिभूत जीव बहुत-से वेदनीयादि कर्मपुद्गलों को, कालान्तर में अनुभवयोग्य दलिकों को भी उदीरणाकरण से उदयावलिका में लाकर वेदता-भोग भोग कर उन्हें निर्जरित कर देता है-आत्मप्रदेशों से अलग कर देता है। वेदना से पीडित जीव अनन्तानन्त कर्मपुद्गलों से वेष्टित आत्मप्रदोशों को शरीर से बाहर फेंकता है। उन प्रदेशों से वदन-जघनादि छिद्रों को और कर्ण-स्कन्धादि अन्तरालों की पूर्ति करके आयाम-विस्तार से शरीरमात्र क्षेत्र में व्याप्त होकर अन्तर्मुहूर्त तक स्थित होता है। उस अन्तर्मुहूर्त में बहुत सारे असातावेदनीय के कर्मपुद्गलों की परिशातना, निर्जरा होती है। यह वेदनासमुद्घात है।
२. कषायसमुद्घात-यह समुद्घात कषायोदय से होता है। कषायोदय से समाकुल जीव स्वप्रदेशों को बाहर निकालकर उनसे वदनोदरादि रन्ध्रों और अन्तरालों की पूर्ति कर आयामविस्तार से देहमात्र क्षेत्र
१. पंचिंदिओ उ बउलो नरोव्व सव्वविसओवलंभाओ।
तहवि न भण्णइ पंचिंदिउ त्ति बझिदियाभावा॥ २. समिति-एकीभावे उत्-प्राबल्ये एकीभावेन प्राबल्येन घातः समुद्घातः ।